डॉ प्रतिभा मुदलियार
☆ कविता ☆ घर पुश्तैनी ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆
घर पुश्तैनी
उतर रहा ज़मीन पर
फैलाकर पंख
जिसने पाली थीं
पाँच पीढ़ियाँ
सदियों तक।
आसमान छूते ठहाकों की
साक्षी बनी
विशाल ऊंची छत
ढहती जा रही अब
अपना किरदार निभाकर।
हर गिरती
ईंट खपरैल संग
भूलीं बिसरीं यादों से
उठ रही है धूल अब।
हर कोने से
आती है आवाज़
हँसी, मस्ती
और रोने की
यादें हज़ारों बातों की
बिंब जिनका मन पर
है अजरामर।
वो सीढ़ियाँ
जिस पर
रुके न थे कदम
पर कुछ राज़
पेट में रख लिए
इसने भी
समय समय पर।
दिवारों ने
न जाने सुने होंगे
कितने किस्से कितनी कहानियाँ
छुपाये होंगे
रहस्य अनगिनत
मूक मौन दिवारों ने।
आज गिर गयीं हैं दीवारें
एक नया इतिहास रचने।
परिवर्तन
प्रकृति तेरा नियम है
सालों खड़ी दीवारों को
अब ढह जाना है
एक नए नीड़ का निर्माण
बेहद ज़रूरी है।
© डॉ प्रतिभा मुदलियार
पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, मानसगंगोत्री, मैसूरु-570006
मोबाईल- 09844119370, ईमेल: [email protected]
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