हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ जीडीपी और दद्दू ☆ – श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध वरिष्ठ  साहित्यकार  श्री रमेश सैनी जी  का   एक बेहतरीन व्यंग्य। श्री रमेश सैनी जी ने तो जीडीपी नाम के शस्त्र का व्यंग्यात्मक पोस्टमार्टम ही कर डाला। यह बिलकुल सही है कि जी डी पी एक ऐसा शस्त्र है  जिसकी परिभाषा/विवेचना सब अपने अपने तरीके से करते हैं। यह तय है कि श्री सैनी जी के पात्र दद्दू जी के जी डी पी  से तो अर्थशास्त्री भी हैरान-परेशान  हो जाएंगे ।)

 

☆ जीडीपी और दद्दू ☆

चुनाव के दिन चल रहे हैं और इसमें सभी दल के लोग जीतने के लिए अपने अपने हथियार भांज रहे हैं. उसमें एक हथियार है, जीडीपी. अब यह जीडीपी क्या होता है. हमारे नेताओं को इससे कोई मतलब नहीं. जीडीपी को समझना उनके बस की बात भी नहीं है. उन्हें तो बस उसका नाम लेना है. हमने कई नेताओं से बात करी. उन्हें जीडीपी का फुल फॉर्म नहीं मालूम. पर बात करते हैं जीडीपी की. वैसे हमारे नेताओं का एक तकिया कलाम है कि जनता बहुत समझदार है. इस जुमले से नेता लोग अपनी कमजोरियों को बहुत ही चतुराई से बचा ले जाते हैं. वे जीडीपी का मतलब भी नहीं समझते हैं. हमारी जनता में से हमारे दद्दू हैं. उनको भी जीडीपी का फुल फॉर्म नहीं मालूम है. किंतु जीडीपी के बढ़ाने में उनका अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष योगदान है, वे अनेक प्रकार से इस प्रयास में लगे हुए हैं.

हमारे दद्दू कहते हैं कि- ठजीडीपी हमारी जीवन शैली है. जीडीपी याने जीवन ढलुआ प्रोग्राम”. इस शैली से अच्छे-अच्छे अर्थशास्त्री जीडीपी में गच्चा खा गए.

दद्दू कहते हैं जब खूबसूरत स्वप्न सुंदरी कहती है- इस लावण्य साबुन से नहाइए. सभी कहते हैं कि जवानी के दिनो में सुंदरी की बात नहीं टालना चाहिए. दद्दू ने भी नहीं टाली और उन्होंने वह लावण्य साबुन खरीदा और नहाने लगे. उन्हें उस साबुन से बहुत प्रेम था. वे सपने में भी साबुन के बहाने स्वप्न सुंदरी को देखते. हमारे दद्दू की नजर साबुन के रैपर बनी स्वप्न सुंदरी की फोटो और उस बट्टी पर बराबर बनी रहती. दादी ने बताया कि साबुन की बट्टी तो उनकी सौतन हो गयीं थी. वे स्वप्न सुंदरी को खुश करने के लिए साबुन की बट्टी खरीदते हैं. उसे किसी को हाथ नहीं लगाने देते. उसे रोज उपयोग करते हैं. जब आधी से कम हो जाती है. तो उसे शौचालय के बाहर में रख देते हैं. जब उससे भी आधी हो जाती और हाथ में पकड़ में नहीं आती है. तब उसे नयी बट्टी में चिपका देते और इस तरह उनका काम चलता. वे उस साबुन से इतना प्यार करते कि नहाते वक्त उस बट्टी को ले जाते, उसे प्यार भरी नजरों से निहारते और बिना साबुन लगाये नहा लेते. इस तरह वे एक महीने  में चार बट्टी की जगह एक बट्टी से काम चला लेते और तीन साबुन बचा कर जीडीपी की ग्रोथ में देश की सेवा करते.

देश की जीडीपी बढ़ाने में हमारे दद्दू का अनेक प्रकार से अतुलनीय योगदान रहा है. वे नया पैजामा सिलवाते. उसे शादी विवाह में पहन कर अपनी शान बखारते, बारात में सबसे आगे चलते, जिससे सबकी नज़र उनके पैजामे पर पड़ सके. जब थोड़ा पुराना हो जाता तो उसे बाजार हाट पहन कर जाते. जब पैजामा नीचे से फटने लगता तो उसे फेंकते नहीं, वरन उसे घुटने के थोड़ा ऊपर से कटवा कर पैताने के दो थैले सिलवा लेते, और ऊपर के हिस्सा से चड्डी का काम लेते. उन्होंने जीवन भर नया थैला नहीं खरीदा और न ही उन्होंने अपने लिए नयी चड्डी भी नहीं खरीदी. इस तरह वे साल में चार थैले और चड्डी बिना खरीदे काम चला लेते. जब थैले फट जाते तो उसे काट छांट कर रुमाल बना लेते और चड्डी के फटने से उसका फर्श पोछने वाला पोछा बन जाता इस तरह वे पैजामे की जान निकलने तक उपयोग करते हैं. अगर कोई घर का सदस्य उनके लिए चड्डी ले आता तो उसे धन्यवाद देने के बजाय इतनी डाँट पिलाते कि उसका दिन का खाना खराब हो जाता था. वे नये थैले, चड्डी और रुमाल खरीदना, पैसे की बरबादी समझते.

दद्दू बचपन में दाँत साफ करने के लिए दाँतौन का उपयोग करते, जो आसानी से मिल जाती थी और दातौन न मिलनेपर राख या कोयले से काम चला लेते. फिर जमाना आया. टूथपेस्ट और ब्रश का. जब पेस्ट खतम होने लगता तो टयूब को हथौड़ी से पीट पीट कर कचूमर निकाल कर पेस्ट बाहर निकल लेते. इतने से वे चुप नहीं बैठते, जब पूरा टयूब पिचक जाता या यों कहें उसकी जान ही निकल जाती है तो फिर वे टयूब को कैंची से काट कर, दो फांक कर देते और ब्रश से पूरी सफाई कर एक दिन का काम चला लेते. इसी तरह ब्रश के बाल घिस जाते तो उससे साईकिल साफ करने का काम लेते. जब ब्रश के बाल पूरी तरह खराब हो जाते तब ब्रश के बालों वाला सिरा काट कर शेष डंडी से पैजामे और चड्डी का नाड़ा डालने का काम ले लेते.

इस सबसे उन्हें बहुत संतोष मिलता. इस तरह से बचत कर देश की आर्थिक स्थिति में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते. उनका मानना था कि पैसा कमाना सरल है, पर पैसा खर्च करना कठिन है. इसे संभाल कर करना चाहिए.

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रमेश सैनी

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