सुश्री मनिषा खटाटे
☆ दो कवितायेँ ☆ [1] चेतना के पूर्वाधार [2] अंतिम ही अभाव है ☆ सुश्री मनिषा खटाटे☆
(मरुस्थल काव्य संग्रह की दो कवितायेँ )
[1]
चेतना के पूर्वाधार
चेतना के अवचेतन में,
बसता है जगत कल्पना और अवधारणाओं का,
ज्ञान और अनुभूति के आकाश तले,
टिमटिमाते हैं तारे स्वर्ग से रात दिन,
आत्मा को करते हैं प्रकाशित,
मनुष्य के फूल की जड़ हैं मूलाधार,
सुगंध हैं सहस्त्रार,
जो हवां से बहती और सागर में उमडती,
किंतु आश्चर्य यह कि,
अहंम ही है अव्यक्त का एक आयाम,
और अंततः अस्तित्व है दूसरा,
जगत और सौंदर्य का अव्यक्त संसार,
अहम भी खिलता उस अव्यक्त से,
पूर्वाधार है चेतना के,
खिलता है ब्रह्म का कमल,
वासना के कीचड़ से.
[2]
अंतिम ही अभाव हैं.
एक आयाम का ही यथार्थ है जगत और मै.
अनेक सदर्भो से अभिव्यव्त होता है वह,
मैं मेरे अहं की ओर मुडती हुँ,
और जगत स्वयं उस एक में
स्थित है.
सर्वव्याप्त समय और आकाश
उस एक के है रुप, परंतु है सापेक्ष
अपितु,
गुरुत्व बल है उत्कांती का भाव,
चेतना और सर्व उत्थान का भी.
सघर्षरत है मनुष्य अपने स्वयं से ही,
ये कथा है तथा चरित्रात्मक टिप्पणियाँ,
उस चित्रकार की,
राह अदभूत है,
आरंभ है कण, कण से,
कायण भी है वह इस एक का.
रंगो में या चित्रो में जगत है चित्रकार का.
और स्वयं के ही आयाम, ही चित्र बनाता,
संघर्ष है स्वयं और स्वरं के मध्यमें फिर,
अंतिम ही अभाव है,
और शुन्य ही है अंतिम.
© सुश्री मनिषा खटाटे
नासिक, महाराष्ट्र (भारत)