सुश्री मनिषा खटाटे

☆ दो कवितायेँ ☆ [1] जब मै द्वार खटखटाती हूँ  [2] पुनरुत्थान ☆  सुश्री मनिषा खटाटे☆ 

(मरुस्थल काव्य संग्रह की दो कवितायेँ। इन कविताओं का अंग्रेजी भावानुवाद जर्मनी की ई पत्रिका (Raven Cage (Poetry and Prose Ezine)#57) में प्रकाशित )

[1]

जब मै द्वार खटखटाती हूँ 

अपितु, ज्ञात नहीं हैं मुझे,

मै हर पल द्वार खटखटाती हूँ,

एक आभास मे प्रकट होता है द्वंद्व.

वह द्वार खुला था और खुला भी है,

सदियों से पर्दा उठा भी है.

उस खुले द्वार पर मैं दस्तक देती हूँ.

मिथक और दिव्य कथाओं ने,

ईश्वर के राज्य में पागलपन पैदा किया है.

परंतु मैं हमेशा,

वही बंद द्वार खोज रही हूँ

खुले द्वार पर ही चोट कर रही हूँ.

 

[2]

पुनरुत्थान

प्रेम का अवतरण हो !

और प्रेम चाँद और लाल गुलाब से,

तथा हृदय के आकार में.

सृजन की मिट्टी से ,

गहरी आँखे झाकती है प्रेम और वासना से,

करुणा है प्रेरणा,

नीति और सामाजिक अनुबंध की,

पाश अमर्याद है मानवता के,

पुनरुत्थान ही अवतरण हो !

पुनरुत्थान ही जीवन और है मृत्यु,

परंतु,

जीवन का अवतरण हो !

और जीवन बहने लगा,

पानी और चेतना से.

© सुश्री मनिषा खटाटे

नासिक, महाराष्ट्र (भारत)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
image_print
5 1 vote
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments