हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दोज़ख ☆ –डा. मुक्ता

डा. मुक्ता

☆ दोज़ख ☆  

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  जीवन के कटु सत्य को उजागर करती  हृदयस्पर्शी कविता।)

 

हर दिन घटित हादसों को देख

मन उद्वेलित हो,चीत्कार करता

कैसी है हमारी

सामाजिक व्यवस्था

और सरकारी तंत्र

जहां मां,बेटी,बहन की

अस्मत नहीं सुरक्षित

जहां मासूम बच्चों को अगवा कर

उनकी ज़िंदगी को दोज़ख में झोंक

नरक बनाया जाता

जहां दुर्घटनाग्रस्त

तड़पता,चीखता-चिल्लाता इंसान

सड़क पर सहायता हेतु

ग़ुहार लगाता

और सहायता ना मिलने पर

अपने प्राण त्याग देता

और परिवारजनों को

आंसू बहाने के लिए छोड़ जाता

जहां दाना मांझी को

पत्नी के शव को कंधे पर उठा

बारह किलोमीटर पैदल चलना पड़ता

उड़ीसा में एंबुलेंस के बीच राह

उतार देने पर

सात साल की बेटी के शव को

कंधे पर उठा

एक पिता को छह किलोमीटर

पैदल चलना पड़ता

जहां एक मां को रात भर

अपनी बेटी का शव सीने से लगा

खुले आसमान के नीचे बैठ

हाथ पसारना पड़ता

ताकि वह दाह-संस्कार के लिए

जुटा सके धन

यह सामान्य सी घटनाएं

उठाती हैं प्रश्न…..

क्या गरीब लोगों को संविधान द्वारा

नहीं मौलिक अधिकार प्रदत्त?

क्या उन्हें नही प्राप्त

जीने का अधिकार?

क्या उन्हें नहीं

रोटी,कपड़ा,मकान की दरक़ार

क्यों मूलभूत सुविधाएं हैं

उनसे कोसों दूर?

हमारी संसद सजग है,परंतु मौन है

एक वर्ष में दो बार

अपना वेतन व भत्ते बढ़ाने निमित्त

हो जाती हैं

सभी विरोधी पार्टियां एकमत

और मेज़ें थपथपा कर

करते हैं सब अनुमोदन

क्यों नहीं उन पर

सर्विस रूल्स लागू होते

क्यों हमारे नुमाइंदे हर पांच वर्ष बाद

बन जाते नई पेंशन पाने के हक़दार

जबकि आमजन को

तेतीस वर्ष के पश्चात्

मिलता था यह अधिकार

जो वर्षों पहले छीन लिया गया

कैसा है यह विरोधाभास?

कैसा है यह भद्दा मज़ाक?

हमारे नुमाइंदों को क्यों है—

ज़ेड सुरक्षा की आवश्यकता

शायद वे सबसे अधिक

कायर हैं,डरपोक हैं

असुरक्षित अनुभव करते हैं

और जनता के बीच जाने से

घबराते हैं,कतराते हैं

वे सत्ताधीश…जिनके हाथ है

देश की बागडोर।

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com