हिन्दी साहित्य – कविता -☆ निःशेष ☆ – श्री हेमन्त बावनकर
श्री हेमन्त बावनकर
(कल पितृ दिवस पर स्वर्गीय पिताजी की स्मृति में लिखी कविता प्रकाशित करने का साहस न कर पाया जिसे आज प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह एक कल्पना है कि अस्पताल के आई सी यू में वेंटिलेटर पर पिताजी के मस्तिष्क में मृत्युपूर्व क्या चल रहा होगा?)
☆ निःशेष ☆
हे! ईश्वर!
इतनी बड़ी सजा?
मेरे परिजनों का प्रयास तो था कि –
सांस चलती रहे।
मौत की घड़ी टलती रहे।
कुछ समझ पाता
या कि
कुछ संभल पाता
इसके पूर्व
मेरी समस्त इन्द्रियां
जकड़ दी गईं।
समस्त नसें भेद दी गईं।
श्वसन तंत्र भी
और तो और
मेरी आवाज भी।
हे प्रभु!
कम से कम
आवाज तो छोड़ देते।
मैं
पड़ा रहा
कितना असहाय।
देख सकता हूँ
अश्रुपूर्ण नेत्र
परिजनों के
अपने चारों ओर।
साथ ही
अपनी ओर आते
मौत के कदम
चुपचाप।
सारी उम्र
कभी चुप न रहने वाले
मुख को जड़वत कर दिया।
श्वसन तंत्र को
मशीनी सांसों से (वेन्टिलेटर)
भर दिया गया।
लगता है कि अब
कुछ भी नहीं है मेरा
मशीनों-दवाओं का
कब्जा है मुझपर।
ये साँसे भी मेरी नहीं हैं।
किन्तु,
मेरे विचार
सिर्फ मेरे हैं
जीवन-मृत्यु की लडाई
से भी परे हैं।
मैं
देख सकता हूँ
अपना अतीत
किन्तु,
मेरी घड़ी की सुई
नहीं बढ पा रही है
वर्तमान से आगे।
एक
पूर्णविराम की तरह।
यह शाश्वत सत्य ही है
किसी को समझने के लिये
पूरा जीवन लग जाता है
और
स्वयं को समझने के लिये
कई जीवन भी कम हैं।
चेष्टा करता हूँ ।
अतीत में झाँकने की
एक अबोध बालक
कंधों पर बस्ता लिये
चल पड़ता है
नंगे पांव
गांव-गांव
शहर-शहर
और
पहुंचा देता है
अपने अंश विदेशों तक।
इस दौड़ का
कोई नहीं है अन्त
सब कुछ है अनन्त।
शायद!
इस वट वृक्ष की
जड़ें गहरी हैं
टहनियाँ-पत्तियाँ
भी हरी-भरी हैं।
शायद!
गाहे-बगाहे
जाने-अनजाने
कभी कुछ कम
कभी कुछ ज्यादा
बोल दिया हो।
कभी कुछ भला
कभी कुछ बुरा
बोल दिया हो।
तो
जीवन का हिसाब समझ
भूल-चूक
लेनी-देनी समझ
माफ कर देना
मन-मस्तिष्क से सब कुछ
साफ कर देना।
क्योंकि,
मैं नहीं जानता कि
क्या है?
शून्य के आगे
और
शून्य के पीछे।
क्षमता भी नहीं रही
कुछ जानने की।
क्षीण होता शरीर
क्षीण होती साँसे
बस
एक ही गम है
सांस आस से कम है
और
मेरे ही बोल
मेरे लिये अनमोल है।
6 दिसम्बर 2010
(स्वर्गीय पिताश्री के देहावसान पर उनको समर्पित)