हिन्दी साहित्य – कविता -☆ मूर्ति उवाच ☆ – श्री हेमन्त बावनकर
श्री हेमन्त बावनकर
☆ मूर्ति उवाच ☆
मुझे
कैसे भी कर लो तैयार
ईंट, गारा, प्लास्टर ऑफ पेरिस
या संगमरमर
कीमती पत्थर
या किसी कीमती
धातु को तराशकर
फिर
रख दो किसी चौराहे पर
या
विद्या के मंदिर पर
अच्छी तरह सजाकर।
मैं न तो हूँ ईश्वर
न ही नश्वर
और
न ही कोई आत्मा अमर
मैं रहूँगा तो मात्र
मूर्ति ही
निर्जीव-निष्प्राण।
इतिहास भी नहीं है अमिट
वास्तव में
इतिहास कुछ होता ही नहीं है
जो इतिहास है
वो इतिहास था
ये युग है
वो युग था
जरूरी नहीं कि
इतिहास
सबको पसंद आएगा
तुममें से कोई आयेगा
और
इतिहास बदल जाएगा।
मेरा अस्तित्व
इतिहास से जुड़ा है
और
जब भी लोकतन्त्र
भीड़तंत्र में खो जाएगा
इतिहास बदल जाएगा
फिर
तुममें से कोई आएगा
और
मेरा अस्तित्व बदल जाएगा
इतिहास के अंधकार में डूब जाएगा।
फिर
चाहो तो
कर सकते हो पुष्प अर्पण
या
कर सकते हो पुनः तर्पण।
© हेमन्त बावनकर