डॉ जसप्रीत कौर फ़लक
☆ कविता – मन का दरवाज़ा ☆ डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक ☆
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घर के दरवाज़े
और मन के दरवाज़े में
बहुत फ़र्क़ होता है
घर का दरवाज़ा तो
अक्सर खुला करता है
मेहमानों के लिए, आने वालों के लिए
किन्तु,
मन का दरवाज़ा खुलता है
जीवन में एक बार
कभी किसी अपने के लिये
यह घर का दरवाज़ा
लकड़ी से बनी
कोई वस्तु नहीं
हमारे घर की मर्यादा है
हमारे घर का सुरक्षा कवच है
खिड़कियों की तो अपनी एक सीमा है
खिड़कियाँ कभी कभार खुलती हैं
पुरवाई के हल्के से झोंके से
इनके पर्दे तो हिल सकते हैं
दरवाज़ा भी हल्का सा खुल सकता है
मगर
मन का दरवाज़ा कहाँ खुलता है..?
यह तो खुलता है
मधुर स्मृतियों के झोंकों से
किसी अपने की दस्तक से
किसी अपने के इंतज़ार में
इसकी चाबीयाँ टंगी नहीं रहतीं
दीवार में लगी कील से
वो संवेदनाओं की ध्वनि
मन की गहराई से उठती
समर्पण की आकांक्षाओं का परिणाम है
मन के दरवाजे का खुलना
दिल के अंदर छुपी आवाज़
एक साधना की भावना
मन के समन्दर में
उठे ज्वार-भाटा को
करती है शांत
लाती है स्थिरता
बार-बार
घर के दरवाज़े का खुलना
ले के आता है
बाहर की आवाज़ों का शोर
विचलित करता है
मन की भावनाओं को,
संवेदनाओं को…
कहाँ हो तुम..?
आ जाओ !
खुली हैं
तुम्हारे लिए
स्मृतियों की खिड़कियाँ…
मन का दरवाज़ा।
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© डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक
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