डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)
लेखनी सुमित्र की #46 – दोहे
जीवन के वनवास को, हमने काटा खूब।
अंगारों की सेज पर, रही दमकती दूब।।
एक तुम्हारा रूप है, एक तुम्हारा नाम ।
धूप चांदनी से अंटी, आंखों की गोदाम।।
केसर ,शहद, गुलाब ने, धारण किया शरीर ।
लेकिन मुझको तुम दिखीं, पहिन चांदनी चीर।।
गंध कहां से आ रही, कहां वही रसधार ।
शायद गुन गुन हो रही, केश संवार संवार।।
सन्यासी – सा मन बना, घना नहीं है मोह।
ले जाएगा क्या भला, लूटे अगर गिरोह ।।
कुंतल काले देखकर, मन ने किया विचार ।
दमकेगा सूरज अभी जरा छंटे अंधियार।।
इधर-उधर भटका किए, चलती रही तलाश।
एक दिन उसको पा लिया, थीं सपनों की लाश।।
© डॉ राजकुमार “सुमित्र”
112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
भाव-भूमि यात्रा की सहज अभिव्यक्ति के लिए सादर प्रणाम।
बेहतरीन अभिव्यक्ति