श्री प्रहलाद नारायण माथुर
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 9 – जिंदगी अचानक अनजान हो गयी ☆
जिंदगी आज अचानक अनजान सी हो गयी,
कल तक मेरी परछाई जो मेरे साथ थी,
ना जाने क्यों आज वह भी अब परायी लगने लगी ||
हर कोई आज यहां उदास दिख रहा है,
कल तक सब के चेहरो पर खुशियां झलक रही थी,
ना जाने क्यों आज रंगत सबके चेहरों की उड़ने लगी ||
कल जो मैंने आज के लिए सुनहरे सपने बुने थे,
आज आते ही वे सब ना जाने कहां गुम हो गए,
ना जाने क्यों जिसे चाहा वहीं चीज जिंदगी से दूर हो गयी ||
सुकून भरी जिंदगी जीने की एक ख्वाहिश थी,
ना जाने ख्वाहिश को किसकी नजर लगी,
ना जाने क्यों चंद खुशियां जमा थी वे भी मुझसे दूर हो गयी ||
आज से अच्छा तो कल था जहां में बच्चा था,
चारों और हंसी-ख़ुशी और अपनेपन का आलम था,
ना जाने क्यों बचपन छिन जिंदगी खुद एक पहेली हो गयी||
© प्रह्लाद नारायण माथुर