श्री प्रहलाद नारायण माथुर
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 13 – खुली किताब ☆
जब खुली किताब थी मेरी जिंदगी,
तब किसी ने पढ़ी नही, सब जिंदगी के अनचाहे पन्ने ही पढ़ते रहे ||
दुनिया मुझे गुनाहगार ठहराती रही,
मेरे लफ्ज़ मेरी बेगुनाही की कहानी चीख़-चीख़ कर कहते रहे ||
किसी ने मेरी आवाज सुनी नहीं,
सब मेरी जिंदगी की किताब को रद्दी समझ इधर-उधर पटकते रहे ||
आज जब जिंदगी की किताब पूरी हो गयी,
सब लोग आज मेरी जिंदगी के सुनहरे पन्नों के कसीदे पड़ने लगे ||
कल तक जो मुझे देखना पसन्द नहीं करते थे,
वे आज मेरी जिंदगी की किताब के पन्ने पलट-पलट कर रोने लगे ||
कल तक जो मुझ पर थूकना पसन्द नही करते थे,
वे ही आज मेरी लाश पर सर पटक-पटक कर बेतहाशा रोने लगे ||
© प्रह्लाद नारायण माथुर