श्री प्रहलाद नारायण माथुर
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 15 – आजाद हो गए मोती☆
खुल गयी गांठ आजाद हो गए मोती,
बिखर कर चारों और फ़ैल गए सब, ठहर गए जिसको जहां जगह मिली ||
गिरते मोती इधर-उधर फुदक रहे थे,
जश्न मना रहे थे सब फुदक-फुदक कर, धागे से आजादी जो मिली ||
उतर गया मुंह सबका जब जमीन पर धड़ाम से गिरे,
कोई इस तो कोई उस कोने में गिरा, किसी को कचरे मे जगह मिली ||
कुछ मोती तो ज्यादा उतावले थे आजादी के जश्न में,
ऐसे औंधे मुंह गिरे, सबसे बिछुड़ ना जाने किसको कहाँ जगह मिली ||
पहले सब खुश थे एक मुद्द्त बाद आजादी जो मिली,
अब सब अपनी-अपनी जगह दुबक गए जहां भी उन्हें जगह मिली ||
सब एक दूसरे को जलन ईर्ष्या करने लगे,
सब एक दूसरे को तिरछी नजर से देखते रहे मगर आँखे नहीं मिली ||
कुछ मोती समझदार थे जो एक जगह इकट्ठे थे,
कुछ खुद को ज्यादा होशियार समझते थे, वे इधर-उधर बिखरे मिले ||
सबको समझ आया बंद गांठ में कितने मजबूत थे,
चाह कर भी मोती धागे में खुद को पिरो वापिस माला नहीं बन सकते ||
बिखरे मोतियों को देख खुला धागा भी रोने लगा,
धागे को देख सब अतीत में खो गए काश कोई हमें एक सूत्र में बांध दे ||
धीरे-धीरे धागा भी वर्तमान से अतीत हो गया,
धागा ठोकरे खा अदृश्य हो गया, मोती धुंधला कर एक दूसरे को भूल गए ||
© प्रह्लाद नारायण माथुर