श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता आजाद हो गए मोती) 

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 15 – आजाद हो गए मोती

 

खुल गयी गांठ आजाद हो गए मोती,

बिखर कर चारों और फ़ैल गए सब, ठहर गए जिसको जहां जगह मिली ||

 

गिरते मोती इधर-उधर फुदक रहे थे,

जश्न मना रहे थे सब फुदक-फुदक कर, धागे से आजादी जो मिली ||

 

उतर गया मुंह सबका जब जमीन पर धड़ाम से गिरे,

कोई  इस तो कोई उस कोने में गिरा, किसी को कचरे मे जगह मिली ||

 

कुछ मोती तो ज्यादा उतावले थे आजादी के जश्न में,

ऐसे औंधे मुंह गिरे, सबसे बिछुड़ ना जाने किसको कहाँ जगह मिली ||

 

पहले सब खुश थे एक मुद्द्त बाद आजादी जो मिली,

अब सब अपनी-अपनी जगह दुबक गए जहां भी उन्हें जगह मिली ||

 

सब एक दूसरे को जलन ईर्ष्या करने लगे,

सब एक दूसरे को तिरछी नजर से देखते रहे मगर आँखे नहीं मिली ||

 

कुछ मोती समझदार थे जो एक जगह इकट्ठे थे,

कुछ खुद को ज्यादा होशियार समझते थे, वे इधर-उधर बिखरे मिले ||

 

सबको समझ आया बंद गांठ में कितने मजबूत थे,

चाह कर भी मोती धागे में खुद को पिरो वापिस माला नहीं बन सकते ||

 

बिखरे मोतियों को देख खुला धागा भी रोने लगा,

धागे को देख सब अतीत में खो गए काश कोई हमें एक सूत्र में बांध दे ||

 

धीरे-धीरे धागा भी वर्तमान से अतीत हो गया,

धागा ठोकरे खा अदृश्य हो गया, मोती धुंधला कर एक दूसरे को भूल गए ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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