हिन्दी साहित्य – कविता ☆ संस्कृति का अवसान ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी  का  कविता संस्कृति का अवसान.   डॉ . मुक्ता जी ने इस कविता के माध्यम से आज संस्कृति का अवसान किस तरह हो रहा है ,उस  पर अपनी बेबाक राय रखी है. आप स्वयं पढ़ कर  आत्म मंथन करें , इससे बेहतर क्या हो सकता है? आदरणीया डॉ मुक्त जी का आभार एवं उनकी कलम को इस पहल के लिए नमन।) 

 

☆ संस्कृति का अवसान ☆

 

जब से हमने पाश्चात्य संस्कृति

की जूठन को हलक़ से उतारा

हमारी संस्कृति का हनन हो गया

 

हम जींस कल्चर को अपना

हैलो हाय कहने लगे

मां को मम्मी, पिता को डैड पुकारने लगे

उनके प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव

जाने कहां लुप्त हो गया

 

हम जाति, धर्म, संप्रदाय के नाम पर

आपस में लड़ने-झगड़ने लगे

लूट-खसोट, भ्रष्टाचार को

जीवन में अपनाने लगे

स्नेह, सौहार्द, करुणा, त्याग भाव

खु़द से मुंह छिपाने लगे

 

नारी की अस्मत चौराहे पर लगी लुटने

पिता, पुत्र, भाई बने रक्षक से भक्षक

बेटी नहीं अपने घर-आंगन में सुरक्षित

अपने ही, अपने बन, अपनों को छलने लगे

पैसा, धन जायदाद गले की फांस बना

अपहरण, डकैती, हत्या उनके शौक हुए

कसमे, वादे, प्यार

वफ़ा के किस्से पुराने हुए

 

राजनीति पटरानी बन हुक्म चलाने लगी

भाई भाई को आपस में लड़वाने लगी

रिश्तों के व्याकरण से अनजान

इंसान खु़द से बेखबर हो गए

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878