श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  काशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी का विशेष आलेख  “नेत्रदान। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – नेत्रदान ☆

अंधापन एक अभिशाप – अंधापन मानव जीवन को जटिल बना देता है, तथा‌ जीवन  को अंधेरे से भर देता है।

अंधापन दो तरह का होता है

१ – जन्मांधता –  जो व्यक्ति जन्म से ही अंधे होते हैं।

२- अस्थाई अंधापन – बीमारी अथवा चोट का कारण से।

१ – जंन्मांधता

जन्मांध व्यक्ति सारी जिंदगी अंधेरे का अभिशाप भोगने के लिए विवश होता है। उसकी आंखें देखने योग्य नहीं होती, लेकिन उनकी स्मरण शक्ति विलक्षण ‌होती है। ‌वह मजबूर नहीं, वह अपने सारे दैनिक कार्य कर लेता है।  दृढ़ इच्छाशक्ति, लगन तथा अंदाज के सहारे, ऐसे अनेक व्यक्तियों को देखा गया है,  जो अपनी मेहनत तथा लगन से शीर्ष पर स्थापित ‌हुये है।  उनकी कल्पना शक्ति उच्च स्तर की होती है।  यदि हम इतिहास में झांकें तो पायेंगे  इस कड़ी में सफलतम् व्यक्तित्वों की एक लंबी श्रृंखला है, जिन्होंने अपनी क्षमताओं का सर्वोत्कृष्ट प्रर्दशन कर लोगों को दांतों तले उंगली दबाने पर मजबूर कर दिया। इस कड़ी में स्मरण करें  तो भक्ति कालीन महाकवि सूरदास रचित सूरसागर में कृष्ण ‌की‌ बाल लीलाओं का  तथा गोपियों का विरह वर्णन, भला कौन संवदेनशील प्राणी‌ होगा जो उन रचनाओं के संम्मोहन में ‌न फंसा‌ हो।

दूसरा उदाहरण ले रविन्द्र जैन की आवाज का। कौन सा व्यक्ति है जो उनकी हृदयस्पर्शी आवाज का दीवाना नहीं है?

तीसरा उदाहरण है मथुरा के सूर बाबा का, जिनकी कथा शैली  अमृत वर्षा करती है। अगर खोजें तो ऐसे तमाम लोगों की लंबी शृंखला दिखाई देगी, लेकिन उनका इलाज अभी तक संभव नहीं है। भविष्य में चिकित्सा विज्ञान कोई भी चमत्कार  कभी भी कर सकता है।

२ – अस्थाई अंधत्व

जब कि दूसरे तरह के अंधत्व का इलाज समाज के सहयोग ‌से संभव है । चिकित्सा बिज्ञान में इस विधि को रेटिना प्रत्यारोपण कहते हैं जिससे व्यक्ति के आंखों की ज्योति वापस लाई जा सकती है, जो किसी मृतक व्यक्ति के  परिजनों द्वारा नेत्रदान  प्रक्रिया में योगदान से ही संभव है । चिकित्सा विज्ञानियों का मानना है कि मृत्यु के आठ घंटे बाद तक नेत्रदान कराया जा सकता है तथा किसी की‌ जिंदगी  को रोशनी का उपहार दिया जा सकता है। यह एक साधारण से छोटे आपरेशन के द्वारा कुछ ही मिनटों में सफलता पूर्वक संपन्न किया जाता है।  मृत्यृ के पश्चात   मृतक को कोई अनुभूति नहीं होती, लेकिन  जागरूकता के अभाव में नेत्रदान   प्राय:  कभी कभी ही  संभव हो पाता है। जिसके पीछे जागरूकता के अभाव तथा अज्ञान को ही कारण  माना जा सकता है।

सामान्यतया हम लोग दान का मतलब धार्मिक कर्मकाण्डो के संपादन, पूजा पाठ तीर्थक्षेत्र की यात्राओं,  थोड़े धन के दान तथा कथा प्रवचन तक ही सीमित समझ लेते है, उसे कभी आचरण में उतार नहीं सके। उसका निहितार्थ नहीं ‌समझ सके। मानव जीवन की रक्षा में अंगदान का बहुत बड़ा महत्व है।  जीवन मे हम अधिकारों के पाने  की बातें करते हैं, लेकिन जहां कर्तव्य निभाने बात आती है‌, तो बगलें झांकने लगते हैं। इस संबंध में तमाम प्रकार की भ्रामक धारणायें  बाधक बन‌ती  है जैसे नेत्रदान आपरेशन के समय पूरी पुतली निकाल ली जाती है और चेहरा विकृत हो जाता है, लेकिन ऐसा नहीं है। आपरेशन से मात्र नेत्रगोलकों के रेटिना की पतली झिल्ली ही निकाली जाती है । जिससे चेहरे पर कोई विकृति नहीं होती।

हिंदू धर्म में चौरासी लाख योनियों की कल्पना की गयी  है, जो यथार्थ में दिखती भी है, लेकिन यह‌ मान्यता पूरी तरह भ्रामक  निराधार  और असत्य है कि नेत्रदान के पश्चात अगली योनि में नेत्रदाता अंधा पैदा होगा। यह मात्र कुछ अज्ञानी जनों की मिथ्याचारिता है। इसी लिए भय से‌  लोग नेत्रदान से  बचना चाहते‌ है।  जब कि  सच तो यह है कि इस योनि का शरीर मृत्यु के पश्चात जलाने या गाड़ने से नष्ट हो जाता है, अगली योनि के शरीर पर इसका कोई प्रभाव ही नहीं होता। क्यो कि अगली योनि का शरीर योनि गत  अनुवांशिक संरचना पर आधारित होता है। यह एक मिथ्याभ्रामक मान्यताओं पर आधारित गलत अवधारणा है।

नेत्रदान के मार्ग की बाधाएं

नेत्रदान की सबसे बड़ी बाधा जनजागरण का अभाव तथा मानसिक रूप से तैयार न होना है। नेत्रदान के संबंध में जिस ढंग के प्रचार प्रसार की जरूरत महसूस की जा रही है वैसा हो नहीं पा रहा है, इसके लिए तथ्यो की सही जानकारी आम जन तक पहुंचाना, भ्रम का निवारण करने के मिशन को युद्ध स्तर पर चलाना। मृत्यु के पश्चात परिजन नेत्रदान के लिए  इस लिए सहमत नहीं होते, क्यो कि दुखी परिजन मानसिक विक्षिप्तता की स्थिति में लोक कल्याण के बारे में सोच ही नहीं पाते। सामंजस्य स्थापित नही कर पाते। इसके लिए अभियान चला कर लोगों को मानसिक रूप से अपनी विचारधारा से सहमत कर नेत्रदान हेतु मृतक के परिजनों को मृत्यु पूर्व ही प्रेरित करना तथा दान के महत्व को समझाना चाहिए, ताकि मृत्यु के बाद अंगदान की अवधारणा पर  उनकी सहमति बन सके। इसके लिए जनजागरण अभियान, समाज सेवकों की टीम गठित करना, लोगों को मीडिया प्रचार, स्थिर चित्र, तथा चलचित्र एवं टेलीविजन से प्रचार प्रसार कर जन जागरण करना तथा अंगदान रक्तदान के महत्व को लोगों को समझाना कि किस प्रकार मृत्यु शैय्या पर पडे़ व्यक्ति की रक्त देकर जीवन रक्षा की जा सकती है, तथा नेत्र दान से जीवन में छाया अंधेरा दूर कर व्यक्ति को देखने में सक्षम बनाया जा सकता है इसका मुकाबला कोई भी धार्मिक कर्मकांड नहीं कर सकता। लोगों को अपने मिशन के साथ जोड़कर वैचारिक ‌क्रांति पैदा करनी‌ होगी, बल्कि यूं कह लें कि हमें ‌खुद अगुआई करते हुए अपना उदाहरण प्रस्तुत करना होगा।

इस बारे में पौराणिक उदाहरण भरे पड़े हैं, जैसे शिबि, दधिचि, हरिश्चंद, कर्ण, कामदेव, रतिदेव, आदि ना जाने अनेकों कितने नाम।

इस संदर्भ में अपनी कविता ” दान  की  महिमा” की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत हैं –

जीते  जी रक्तदान मरने पर अंगदान,
सबसे बड़ा धर्म है पुराण ये बताता है।
शीबि दधिची हरिश्चंद्र हमें ‌ये बता गये,
सत्कर्मो का धर्म से बड़ा गहरा नाता है।

पर हित सरिस धर्म नहिं,
पर पीडा सम अधर्म नहीं।
रामचरितमानस हमें ये सिखाता है।
जीवों की रक्षा में जिसने विषपान किया,
देवों का देव महादेव ‌वो बन जाता है।।

(दान की महिमा रचना के अंश से) 

इस प्रकार हमारी ‌भारतीय संस्कृति में ‌दान का महत्व ‌लोक‌कल्याण हेतु एक  परंपरा का रूप ले चुका था, लेकिन आज का मानव  समाज अपनी परंपरा भूल चुका है। उसे एक बार फिर याद दिलाना होगा। इस क्रम में देश के उन जांबाज सेना के जवानों का संकल्प ‌याद आता है जिन्होंने अपना‌ जीवन‌ देश सीमा को तो सौंपा ही है अपने मृत शरीर  का हर अंग समाज सेवा में लोक कल्याण हेतु दान कर अमरत्व की महागाथा लिख दिया ऐसे लोगो का संकल्प, पूजनीय, वंदनीय तथा अभिनंदनीय है हमारे नवयुवाओं को उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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