श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी  की एक भावप्रवण कविता  “अन्नदाता। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – अन्नदाता

मै‌ किसान ‌अन्नदाता हूँ, इस देश का भाग्य विधाता हूँ।

अपने कठिन परिश्रम से, मै सबकी भूख मिटाता हूँ।

 

वर्षा सर्दी‌ गर्मी सहकर, सब्जी फल फूल उगाता हूँ।

पर लूट‌खसोट के‌ चलते, भइया मै‌ भूखा‌ सो‌ जाता हूँ।

 

कभी आपदा के चलते, हम सब के सपने चूर  हुए।

कर्जे महंगाई के चलते, मरने पे‌ मजबूर हुए।

 

हम सबकी मेहनत  का फल, हर समय बिचौलिया खाता है।

सरकारी ‌राहत का सारा ‌धन, घपलेबाज की जेब में जाता है।

 

बेटी की‌ शादी पढ़ाई की चिंता, हम को खाये जाती‌ है।

रातें आंखों में कटती है, नींद न हमको आती है।

 

अपने छप्पर में मैं बैठा, खाली कोठारें तकता हूँ।

हाथों की लकीरें देख देख, अपनी क़िस्मत मैं पढता‌ हूँ।

 

अंधेरी काली रातों में  ,खाली बर्तन टटोलता हूँ मैं।

कर्जे खर्चे की डायरी के पन्ने, अब बार बार खोलता हूँ मैं।

 

अपने खेत में बैठा हूँ, पशुओं की रखवाली करता हूँ।

फसल चर रहे आवारा पशु, कुछ भी कहने से डरता हूँ।

 

आशा और निराशा ‌से, जब दिल मेरा घबराता है।

तब भूतकाल भविष्य बन‌कर, मुझको रोज डराता है।

 

फिर‌ भी उम्मीदों के दामन में, रंगीन नजारे दिखते हैं।

जीवन की अंधेरी रातों में, चांद सितारे दिखते हैं।

 

अब सूनी-सूनी आंखों से, उम्मीद की राहें तकता हूँ।

खेत की मेड़ पे बैठा हूँ, पगला दीवाना दिखता हूँ।

 

मैं नील‌कंठ बन बैठ गया, पीकर‌ के‌ विष का प्याला।

अपनी व्यथा‌ कहें किससे, है कौन उसे सुनने वाला।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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