श्री प्रहलाद नारायण माथुर
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 26 ☆ मौत भी अचंभित रह गयी ☆
मौत से उनकी ठन गयी थी,
यह देख मौत भी अचंभित रह गयी थी,
लुका छिपी का खेल कुछ समय से चल रहा था,
मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||
मौत जूझती रही रोजाना उनसे,
वो मौन रह कर मात देते रहे उसे,
कभी सामने तो कभी पीछे से मौत रोज वार करती ,
मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||
मौत बार-बार दस्तक देती रही,
चित्रगुप्तजी का लेखा-जोखा उन्हें बतलाती रही,
मौत बैचेन थी कैसे ले जाऊंगी इन्हें अब,
मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||
हार नहीं मानूँगा यहीं उन्होंने ठानी थी,
साथ लेकर जाऊंगी मौत ने भी ठानी थी,
मौत से ठन जो गयी, मौत थक कर हार मानने को थी,
मौत को भी अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||
मौत अटल जी से विनती करने लगी,
जो आया है उसे जाना ही है, बहला कर कहने लगी,
चित्रगुप्त जी का लेखा आज तक कभी गलत नहीं हुआ,
मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||
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अटल जी भी सत्य के पुजारी थे,
कहा मौत से, शर्मिंदा तुझे होने नहीं दूंगा,
साथ तेरे अवश्य चलूँगा पर एक बात माननी होगी,
मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||
आज पंद्रह अगस्त है देश आजादी के जश्न मे डूबा है,
सारे देश में आज तिरंगा शान से लहरा रहा है,
झुकने नहीं दूंगा आज इसे, लहराने दो तिरंगे को शान से,
मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||
पंद्रह अगस्त को खलल नहीं डालने दिया मौत को,
सौलह हो गयी,मौत घबरा गयी कैसे कंहू अब चलने को,
मौत को परेशां देख अटल जी ने कहा चलो अब सफर करते हैं,
मौत के जान में जान आयी, उसे अहसास था यहां दाल नहीं गलने वाली ||
© प्रह्लाद नारायण माथुर