श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
(आज “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय जी का विशेष शोधपूर्णआलेख “प्रेम तेरे कितने रूप -कितने रंग”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य#74 ☆ प्रेम तेरे कितने रूप – कितने रंग ☆
यदि प्रेम शब्द की व्याकरणीय संरचना पर ध्यान दें, तो यह ढाई आखर (अक्षरों) का मेल दीखता है। जो साधारण सा होते हुए भी असाधारण अर्थ तथा मानवीय गुणों का भंडार सहेजे हुए हैं। इसके इसी गुण के चलते कर्मयोगी आत्मज्ञानी कबीर साहब ने जन समुदाय को चुनौती देते हुए ढाई आखर में समाये विस्तार को पढ़ने तथा समझने की बात कही है।
उनका साफ साफ मानना है कि पोथी पढ़ने से कोई पंडित (ज्ञानी) नहीं होता, जिसने प्रेम का रूप रंग ढंग समझ लिया वही ज्ञानी हो गया।
पोथी पढि पढि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।
लेकिन अध्ययन के दौरान हमने प्रेम के अनेक रूप रंग तथा गुण अवगुण भी देखे। भक्ति कालीन अनेक संतों महात्माओं ने प्रेम विषयक अपनी-अपनी अनुभूतियों से लोगों को समय समय पर अवगत कराया है जैसे
किसी अज्ञात रचनाकार अपने शब्दों में प्रेम कि उत्पति तथा पाने का रास्ता बताने हुए पूर्ण समर्पण की बात करते हुए कहते हैं कि –
प्रेम माटी उपजै प्रेम न हाट बिकाय।
जाको जाको चाहिए, शीष देय लइ जाय।।
कबीर साहब भी कहते हैं कि-
कबिरा हरि घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं।
सीस उतारै हाथ लै, सो पइठै छिन माहि।।
तो वहीं पर कबीर साहब के समकालीन कवि कृष्ण भक्त रहीमदास जी प्रेम में दिखावे की मनाही करते हुए कहते हैं कि –
ऐसी प्रीति न कीजिए, जस खीरा ने कीन।
उपर से तो दिल मिला, भीतर फांकें तीन।।
लेकिन, कृष्ण भक्त मीरा के अनुभव में प्रेम की अनुभूति उलट दिखाई देती है तथा कृष्ण से किये प्रेम की अंतिम परिणति अपने समाज द्वारा मिली घृणा नफरत तथा हिंसा के चलते दुखद स्मृतियों की कहानी बन कर रह जाती है। उनके अंतर्मन की वेदना उनकी रचनाओं में दिख ही जाती है और प्रेम करने से ही लोगों को मना करते हुए कह देती है।
जौ मैं इतना जानती, प्रीत किए दुख होय।
नगर ढिंढोरा पीटती, प्रीत न करियो कोय।।
प्रेम में मिलन जहां सुख की चरम अनुभूति कराता है वहीं बिछोह का दुखद अनुभव भी देता है। तभी कविवर सूरदास जी प्रेम के भावों की दुखद अनुभूति का वर्णन करते हुए ऊधव गोपी संवाद मैं उलाहना भरे अंदाज में मधुवन को वियोगाग्नि में जलने की बात कहते हुए अपने मन की अंतर्व्यथा प्रकट करते हुए गोपियां कहती हैं कि –
मधुबन तुम क्यौं रहत हरे ।
बिरह बियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौ न जरे ।
वहीं कबीर मिलन के पलों को यादगार बनाने के लिए अपनी रचना में पिउ के मिलन के अवसर पर पड़ोसी स्त्रियो से मंगलगान करने का अनुरोध करते हुए कहते हैं कि-
दुलहनी गावहु मंगलचार, हम घरि आए हो राजा राम भरतार।
तो वहीं पर बाबा फरीद (हजरत ख्वाजा फरीद्दुद्दीन) अंत समय में शारीरिक गति को देखते हुए कह उठते है कि हे काग तुम मृत्यु के पश्चात सारा शरीर नोच कर खा जाना लेकिन इन आंखों को छोड़ देना कि प्राण निकल जाने के बाद भी इन आंखों में मिलन की आस बाक़ी है।
कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खाइयो मांस।
दोइ नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस।
प्रेम में उम्मीद पालने का ऐसा उत्कृष्ट उदाहरण और कहां मिलेगा। आज भी प्रेम प्रसंगों के चलते हत्या, आत्महत्या, नफ़रत की विद्रूपताओं के रूप के दीखता है वहीं प्रेम का दूसरा सकारात्मक पहलू भी दीखता है जिसमें दया करूणा प्रेम सहानुभूति जैसे भाव भी दृष्टि गोचर होते हैं तथा किसी कवि ने यहां तक कह दिया कि ईश्वर भी प्रेम में विवस हो जाता है-
प्रबल प्रेम के पाले पडकर, हरि को नियम बदलते देखा।
खुद का मान भले टल जाये, पर भक्त का मान न टलते देखा।
वहीं प्रेम की गहन अनुभूति पशु पंछियों तथा अन्य सामाजिक प्राणियों को भी सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए विवश करती है। तभी तो इस आलेख के लेखक अपने प्रेम विषयक अनुभव को गौरैया के जीवन दर्शन में प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि—-
नहीं प्रेम की कीमत कोई, और नही कुछ पाना।
अपना सब कुछ लुटा लुटा कर, इस जग से है जाना।
प्रेम में जीना प्रेम में मरना, प्रेम में ही मिट जाना।
ढाई आखर प्रेम का मतलब, गौरैया से जाना।।
अर्थात्- प्रेम अनमोल है इसे दाम देकर खरीदा नहीं जा सकता। इसमें कुछ पाने की चाहत नहीं होती। अपना सबकुछ लुटा लुटा करके प्रसंन्नता पूर्वक जीवन बिताना ही प्रेम की अंतिम परिणति है।
प्रेम के साथ जीवन, प्रेम के साथ मृत्यु तथा प्रेम के साथ अपना अस्तित्व मिटाना ही तो ढाई आखर प्रेम का अर्थ है सही मायनों में सार्थक सृजन संदेश भी।
तभी तो किसी गीतकार ने लिखा- “मैं दुनियां भुला दूंगा तेरी चाहत में ” यह ईश्वरीय भी हो सकता है और सांसारिक भी।
© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”
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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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