श्री प्रहलाद नारायण माथुर
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 38 ☆
☆ रुखसत हो गयी जिंदगी ☆
रुखसत हो गयी जिंदगी बहार के इंतज़ार में,
मैं खुद ही खुद का मेहमान हो गया जिंदगी में ||
कैसे खिदमत करूं खुद की कुछ समझ नहीं आता,
जवाब देते नहीं बना,कैसे आना हुआ जब पूछ लिया जिंदगी ने ||
जवानी से तो बचपन अच्छा था हंसी-खुशी से बीता था,
हर कोई मुझसे खुश था खुशियों से झोलियाँ भरी थी जिंदगी में ||
होश संभाला तब असल जिंदगी से मुलाकात हुई,
हंसी-खुशी गायब थी रौनक सौ-कोस दूर थी असल जिंदगी में ||
जिन लोगों के चेहरे मुझे देख खिल उठते थे,
खुद के गुनाहों का कुसूरवार भी मुझे ही ठहराने लगे जिंदगी में ||
दुनिया में हर तरफ झूठ कपट का है बोलबाला,
बनावटी हंसी-मुस्कान और दिखावे का अपनापन भरा है जिंदगी में ||
© प्रह्लाद नारायण माथुर