हेमन्त बावनकर

☆ कविता ☆ होली पर्व विशेष – माँ, मैं कैसे होली मनाऊँ? ☆ हेमन्त बावनकर 

जिस बेटे ने बचपन में

तिरंगे में लिपटे पिता को

अग्नि दिया हो

अपने जख्मों को

जिंदगी भर सिया हो

तीन रंगों को ही जिया हो

तुमने अपनाया सफ़ेद रंग

हमें हरा और केसरिया

ही दिया हो

बाकी रंग फीके से लगते हैं

दीवाली के बुझे दिये से लगते हैं

माँ अब तुम्हीं बताओ

बापू प्रतिमा को कौन सा रंग लगाऊँ

माँ मैं कैसे होली मनाऊँ?

 

लोग चौराहे पर शहीदों की

प्रतिमा को लगाते हैं

फिर दिवंगत आत्मा के साथ ही

प्रतिमा को भूल जाते हैं

गाहे बगाहे राष्ट्रीय पर्व पर

फूल माला चढ़ा जाते हैं

तुम पूछती हो न

मैं कहाँ जाता हूँ

रात के अंधेरे में

बापू प्रतिमा तक जाता हूँ

दूर से चुपचाप देख आता हूँ

नहीं जानता बापू को

कौन सा रंग भाता है

कैसे पूछूं तुमसे

उन्हें कौन सा रंग लगाऊँ

माँ मैं कैसे होली मनाऊँ?

 

बापू ने तो बताया था कि

संविधान हमें देता है

सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय,

विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास

धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता,

प्रतिष्ठा और अवसर की समता

सब में व्यक्ति की गरिमा

राष्ट्र की एकता और अखंडता

सुनिश्चित करने वाली बंधुता

यदि यह सच है

तो

जाति, धर्म और भीड़तन्त्र

का रंग क्या है?

राजनीति का रंग

देश की मिट्टी और मानवता

से भी क्या कुछ नया है?

माँ अब तुम्हीं बताओ

मैं इन अनजान रंगों से

किस रंग का मास्क लगाकर

खुद को कैसे बचाऊँ?

माँ मैं कैसे होली मनाऊँ?

माँ मैं कैसे होली मनाऊँ?

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

29 मार्च 2021

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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Ram Krishan Rastogi

बहुत ही सुंदर रचना
पढ़कर रचना को दिल भर आया है,
शहीदों का केसरिया रंग याद आया है।
शीश झुकाते हैं हम उन सब शहीद को,
जिसने भारत माता को बचाया है।।

आर के रस्तोगी गुरुग्राम

हेमन्त बावनकर

आभार सर

Shyam Khaparde

हेमंत भाई लाजवाब रचना, बधाई

हेमन्त बावनकर

धन्यवाद बंधुवर

विजय तिवारी " किसलय "

सच,
सच्चे देशभक्त बलिदानी के परिवार के लिए राष्ट्र से केवल प्रेम अपनत्व व मान-सम्मान की आकांक्षा होती है।
रंगों का यह पर्व भी कहीं पृष्ठभूमि में चला जाता है।
संवेदी व श्रेष्ठ रचना हेतु बधाई भैया।

हेमन्त बावनकर

धन्यवाद भाई

Animesh Shrivastava

रंग के बहाने से नकली ढंग उजागर करती असली कविता है ये। सच अब कुछ समझ नहीं आता कि कौन सा रंग लगाऊं।

Sanjay k Bhardwaj

भीड़तंत्र और कौनसे रंग का मास्क वाली कहन विशेष प्रभावित करती है। असरदार अभिव्यक्ति।