डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव
☆ यद्यपि नवदुर्गा का स्वरूप है ☆
(प्रस्तुत है डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की कविता यद्यपि नवदुर्गा का स्वरूप है की रचना के लिए डॉ प्रेम कृष्ण जी को हार्दिक बधाई। हम आपसे आपकी विभिन्न विधाओं की चुनिन्दा रचनाओं की अपेक्षा करते हैं। )
तैरती थी जिसमें कई महीने,
वो गर्भ का एक सागर था।
सृष्टि पाली जिसमें बड़े करीने,
ममता का सुरक्षित सागर था।।
उसकी बंद पलकों में अंधेरा था,
आज खुली पलकों में सवेरा है।
गर्भ एक घुप सागर घनेरा था,
अब ये एक अनुपम बसेरा है।
उनींदी आंखों से मुझे निहारती,
शायद मैं कौन प्राणी हूँ सोचती।
मैं कहॉ आ गई हूं ये विचारती,
अनगिनत सपने मन में पोषती।।
अष्टमी में सद्यः जन्मी आई मेरे सामने,
थी मुझे जिसकी उत्कट प्रतीक्षा।
लेकर आई वो अनगिनत मायने,
पूर्ण करने हम सबकी उर इच्छा।।
बेटियों के रूप में मैं ही तो जन्मा हूँ,
बेटियों के रूप में मैं ही तो जी रहा हूं।
अब नातिन में मैं अष्टमी में पुनः जन्मा हूँ,
शिवानी बन मैं फिर जी रहा हूं।।
सृष्टि का वो स्वयं एक रूप है,
वो शिवानी का तो ही प्रतिरूप है।
पर नारी हेतु समाज कितना कुरूप है,
यद्यपि वो नव दुर्गा का ही स्वरूप है।।
बेटियां सरस्वती लक्ष्मी दुर्गा ही बने,
चूड़ियाँ पहन वो घर में ही न बंद रहें।
धरती आकाश सागर उड़ने हेतु ही बने,
पंख पसारें उड़ें खुश्बू बन महकती रहें।।
लक्ष्मी हैं सरस्वती हैं रति भी वही हैं,
मर्दन करें दरिंदों का और चहकती रहें,
वक्त आने पर नवदुर्गा का स्वरूप वही हैँ।।
© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव
बहुत ही सुन्दर सामयिक और उम्दा रचना है
धन्यबाद अशोक
????? बहुत सुंदर।
Thanks dr Tayal
अति सुंदर, भावनात्मक, loving .