॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #5 (21-25) ॥ ☆

 

पर मेरे फिर फिर दुराग्रह से क्रोधित हो, मेरी गरीबी को बिन ध्यान लाये –

दी चौदह विद्याओं को ध्यान रख मुझसे चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्रा मँगाये ॥ 21॥

 

ऐसा मैं अर्ध्य हेतु मृदपात्र लख आपको सिर्फ प्रभुशब्द युत मानता हूँ

अतः आपसे चौदह कोटि मुद्रायें पाने का साहस नही बाँधता हूँ ॥ 22॥

 

तब चंद्रशोभी, उस अनुराग त्यागी नरपति ने सुन कौत्स्य का यह निवेदन

उस वेदज्ञाता, विद्वान ब्राहम्ण के प्रति किया अपने मन का प्रदर्शन ॥ 23॥

 

वेदांत पारंगत ऋषिवर को देने गुरूदक्षिणा हेतु आ कोई याचक

‘रघु से मनोरथ पूरा न पाया ‘ ऐसा न हो कोई अपवाद भ्रामक ॥ 24॥

 

अतः उचित यह आप दो – तीन दिन रूक मेरे अतिथिगृह में ही विश्राम पायें

जिससे कि गुरूदक्षिणा हेतु है श्रेष्ठ ! धन के लिये यत्न कुछ किये जायें ॥ 25॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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