हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ पिता ☆ – सुश्री सुषमा सिंह

सुश्री सुषमा सिंह 

 

(प्रस्तुत है सुश्री सुषमा सिंह जी की एक अत्यंत भावुक एवं हृदयस्पर्शी कविता “पिता ”।)

 

☆ पिता ☆

 

तुम पिता हो, सृष्टा हो, रचयिता हो, हां, तुम स्नेह न दिखाते थे

मां की तरह न तुम सहलाते हो, पर हो तो तुम पिता ही ना।

जब मैं गिरती थी बचपन में, दर्द तुम्हें भीहोता था

चाहे चेहरा साफ छिपा जाए, पर दिल तो रोता ही था

माना गुस्सा आ जाता था, हम जरा जो शोर मचाते थे

पर उस कोलाहल में कभी-कभी, मजा तुम भी तो पा जाते थे

चलते-चलते राहों में, जब पैर मेरे थक जाते थे

मां गोद उठा न पाती थीं, कांधें तो तुम्हीं बैठाते थे

मां जब भी कभी बीमार पड़ीं, तुम कुछ पका न पाते थे,

कुछ ठीक नहीं बन पाता था, कोशिश कर कर रह जाते थे

उमस भरी उस गर्मी में, कुछ मैं जो बनाने जाती थी

तब वह तपिश, उस गर्मी की, तुमको भी तो छू जाती थी

जरा सी तुम्हारी डांट पर, हम सब कोने में छिप जाते थे

झट फिर बाहर निकल आते, जो तुम थोड़ा मुस्काते थे

मैं जब दर्द में होती थी, व्याकुल तुम भी हो जाते थे

पलकें भीगी होती थीं, फिर आंखें चाहे न रोती थीं

चेहरा जो तुम्हारा तकती हूं, आशीष स्वयं मिल जाता है

मुख से चाहे कुछ न बोलूं, वंदन को सिर झुक जाता है

तुम पिता हो, सृष्टा हो, रचयिता हो

 

© सुषमा सिंह

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