श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
(श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी की कवितायें हमें मानवीय संवेदनाओं का आभास कराती हैं। प्रत्येक कविता के नेपथ्य में कोई न कोई कहानी होती है। मैं कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी का हृदय से आभारी हूँ जिन्होने इस कविता के सम्पादन में सहयोग दिया। आज प्रस्तुत है कविता “पत्र पेटिका”। इस पत्र पेटिका का महत्व मेरी समवयस्क पीढ़ी अथवा मेरे वरिष्ठ जन ही जान सकते हैं। इस पत्र पेटिका से हमारी मधुर स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं जिन्हें श्री सूबेदार पाण्डेय जी ने अपनी कविता के माध्यम से पुनः जीवित कर दिया है। )
☆ पत्र पेटिका ☆
मै पत्र-पेटिका वहीं खडी़,
युगों से जहां खडी़ रही मै
सर्दी-गर्मी-वर्षा सहती,
सदियों से मौन पडी़ हूँ मै…
लाल रंग की चूनर ओढ़े,
सबको पास बुलाती थी।
अहर्निश सेवा महे का
सबको पाठ पढ़ाती थी…
कोई आता था पास मेरे,
प्यार का इक पैगाम लिये
कोई आता था पास मेरे
प्यार का इक तूफां लिए…
कोई सजनी प्रेम-विरह की
पाती रोज इक छोड़ जाती थी
कोई बहना भाई के खातिर
राखी भी दे जाती थी…
कोई रोजगार पाने का
इक आवेदन दे जाता था
मैं इन सबका संग्रह कर
मन ही मन इठलाती थी…
सुबह-शाम दो बार हर
रोज डाकिया आता था
खोल चाभी से बंद ताले को
सब पत्रों को ले जाता था…
हाय, विधाता! आज हुआ क्या
कैसा ये उल्टा दिन आया
बदनज़र लगी मुझको या
घोर अनिष्ट का है साया…
टूटे पेंदे, जर्जर काया, बिन ताले,
अपनी किस्मत को रोती हूँ
खामोश खड़ी चौराहे पर खुद
ही अपनी अर्थी ढोती हूँ…
-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”
संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208
अतिसुन्दर! मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण अपनी मिट्टी से जुड़ी हुई एक भावपूर्ण कविता…