हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – बूंद की कथा… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆
श्री राजेन्द्र तिवारी
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण कविता ‘बूंद की कथा…‘।)
☆ कविता – बूंद की कथा… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆
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एक नन्ही सी बूंद जल की,
आशा की किरण लिए मन में,
कितने अरमान संजोये थे,
जब छुपी मेघ के अंचल में,
नन्हे दिल में बड़े प्रेम से,
साहस का अंकुर बोया,
कीर्ति रहे इस जग में,
यह अरमान संजोया,
आखिर वह दिन भी आया,
स्वजनों से जब किया किनारा,
रोया दिल भीगे नैनों से,
बहने लगी अश्रु की धारा,
यादें धूमिल हो गई,
सामने भविष्य था
आस निराशा के घेरे में,
अनंत का रहस्य था,
वायु के उज्जवल रथ पर,
अश्व जुते जिसमें सपनों के,
पल पल थी वह सोच रही,
क्यों दामन छूटे अपनों के,
सोचा किसी सीप में गिर,
मैं मोती बन जाऊंगी,
किसी हार में लगा कर फिर,
दुल्हन के गले लग जाऊंगी,
रूप सौंदर्य की वृद्धि करके,
जीवन सफल बनाऊंगी,
प्यार करूंगी हर पल से,
हर पल को सुखद बनाऊंगी,
किसी नवेली दुल्हन की,
मांग में जा छुप जाऊंगी,
कृतार्थ करूंगी अपने को,
मांग का मान बढ़ाऊंगी,
दुखद बिदा की बेला में,
नैनो के आंसू बन जाऊंगी,
स्वजनों की आंखों में भरकर,
डोली का मान बढ़ाऊंगी,
या फिर मंदिर में जाकर,
ईश को शीश झुकाऊंगी,
ईश के चरणों में गिरकर,
चरणामृत कहलाऊंगी,
भक्त जनों की अंजलि में जा,
प्रेम की प्यास बुझाऊंगी,
शांति मिले मन को ऐसी,
भक्ति भाव बढ़ाऊंगी,
फिर सोचा कि जब मजदूर,
कार्य से बोझिल थक कर चूर,
अपने घर जब वापस आता,
जल पीने को जी ललचाता,
इतने में गृह लक्ष्मी भी,
जल लुटिया ले बाहर आती,
बूंद सोच में पड़ी कि वह भी,
लुटिया के जल में मिल जाती,
प्यासे श्रमिक की प्यास बुझा,
यह जीवन सफल बना जाती,
फिर बदला नन्हा सा दिल,
सुन,पपीहे की पुकार उदास,
गिर जाऊं इसके मुंह में तो,
बुझ जाए इसकी भी प्यास,
क्रूर काल का खेल ये कैसा,
हाय विधाता की माया,
नन्हा सा दिल टूट गया,
स्वप्न न पूरा हो पाया,
कालचक्र फिर जर्जर सा,
मंद गति से चला
रोम रोम भी कांप उठा,
आशंका से दिल दहला,
आस ना पूरी हो पाई,
राज,आ गई कैसी घड़ी,
अंतिम सांसें ले रही,
बूंद कीचड़ में पड़ी,
कली पुष्प ना बन पाई,
निशि की छाया आ गई,
जीवन भी ना मिल पाया,
मृत्यु कहीं से आ गई…
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© श्री राजेन्द्र तिवारी
संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर
मो 9425391435
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈