हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ भीड़ ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन । वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा संस्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध. )
☆ कविता – भीड़ ☆
इन दिनों
जहाँ भी जाता हूँ
मेरे पीछे भीड़ ही भीड़ होती है
घर में, विद्यालय में
अस्पताल में, मुर्दाघर में
गाँव -घर के गलियारों में
बाज़ारों में, मेलों-ठेलों में
जहाँ पुलिस नहीं है उन चौराहों पर तो
और भी अगड़म-बगड़म तरीके से
पैदल भागती,
आँख मूँद सरपट्टा मार सड़क पार जाती
या फिर जाम में फँसी
कारों, बसों, टैंपो, रिक्शों में
भरी हुई यह भीड़
अनावश्यक रूप से पों-पों करते हुए
ठेलती चलती है अजनबीपन को
मुंडन-सुंडन में
शादी-ब्याह में,
बजबजाती वर्षगांठों में
एक अजीब तरह की
कास्मेटिक्स की दुर्गंध छोड़ती हुई भीड़
हमसे सही नहीं जा रही है इन दिनों
जहाँ भी जाता हूँ न जाने क्यों
इंसान तो इंसान मुर्दे तक
भीड़ की शक्ल में घेर कर खड़े हो जाते हैं हमें
कभी-कभी मुझे शक होता है कि-
यह भीड़ सिर्फ मुझे ही दिखती है
या खुद भीड़ को भी
इत्मीनान के लिए लिए पीछे मुड़-मुड़कर भी देखता हूँ
फिर खुद पर ही शर्मिंदा होता हूँ कि कहीं भीड़
कुछ समय के लिए पागल न समझ बैठे
या फिर मुझे पागल घोषित ही न कर दे
हमेशा-हमेशा के लिए
और अचानक बेवजह बात-बेबात मुझपर
ज़ोर-ज़ोर से पत्थर फेंकने लगे यह भीड़
इसी से
बाहर निकलने के नाम भर से चक्कर आते हैं
इन दिनों
जी मिचलाता है
उबकाई आती है
कुछ लार-सी ही
बाहर निकल जाए तो भी
शुकून मिल जाता है मन को
एक दिन पत्नी ने मुझे बेसिन के पास ओ-ओ करते देखा तो
मज़ाक कर बैठी,
‘लो बहू तुम्हारी ओर से न सही तो
तुम्हारे बाबू जी की ओर से ही सही
खुशखबरी तो सुन रही हूँ कहीं से।’
उसके बाद से तो घर में ज़ोर से खाँसता तक नहीं हूँ
किसी के सामने
किसी को भी नहीं बताता
अपनी यह समस्या
कानी चिड़िया को भी नहीं
न ही किसी के पास
इन आलतू-फालतू बातों को सुनने के लिए समय ही है
इतनी गंभीर गोपनीयता के बावजूद
कई महीनों से
बच्चों को लगता है कि
मुझे कुछ मानसिक समस्या है
लेकिन दिखाने कोई नहीं ले जाता कहीं
अभी कुछ दिनों से मुझे भी लगता है
किसी मनोचिकित्सक को दिखा ही लूँ
पोती को ले जाऊँगा साथ
अभी छोटी है तो क्या
कम से कम इससे
मज़ाक तो नहीं बनूँगा किसी के सामने
मन करता है कि जल्दी ही चला जाऊँ
‘उपचार से बचाव अच्छा है’
पर,
वहाँ की भीड़ से भी डर रहा हूँ
सोचता हूँ घर से ही न निकलूँ तो ही बेहतर है
लेकिन यह भी कोई स्थायी समाधान तो नहीं
आखिर करूँ तो करूँ क्या
अपना इलाज़ कराऊँ या उस भीड़ का
जो मुझको
मेरे साथ मेरे अपनों को भी
अपने में विलीन कर लेने के लिए
मेरे पीछे पड़ी है
घर से डॉक्टर के यहाँ तक
चार-पाँच अन्धे मोड़ हैं
बिना हॉर्न दिए भटभटाते हुए
अचानक घुस आते हैं लड़के
मुन्नी भी
भाग लेती है किसी ओर भी
अभी बहुत छोटी है
तो भी उठाई जा सकती है
कितने बड़े-बड़े मॉल हैं
जिनमें भी खो सकती है मेरी मुन्नी
मैं पागल ऐसे ही नहीं हो रहा हूँ
भीड़ के पिछले इतिहास भी तो हैं
जिनमें खोए लोग
अभी तक खोज-खोज के थक गई हैं
हमारी सरकारें
यह भीड़ भी किसी समुद्र से कम नहीं
जिसमें अपना कोई डूब जाए तो –
फिर खोजे ही न मिले ।
© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’