हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ अंतर्मन की व्यथा ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है।  आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की एक भावप्रवण  एवं सामयिक कविता अंतर्मन की व्यथा .)

 

कविता – अंतर्मन की व्यथा  ☆

 

एक नदी बह रही है भीतर कहीं

लेकिन भीगती नहीं है अंतर्मन की जमीं।

तुम हर बार एक नया कंकर फेंक कर

जगा देते हो मेरे भीतर की खामोशी

 

छेड़ते रहे हो हाहाकार की धुन और तब

इस अंतः सलिला के उफनते भंवर–प्रवाह

लील लेना चाहते हैं मेरी संपूर्णता – मेरा   – –

समन्वय,मेरा सृजन,मेरा जुड़ाव।

 

कर देना चाहते हैं बंटवारा मेरी जिंदगी का

वे बुलबुले – – जो पल-पल बनते बिगड़ते हैं

अंतर्मन में उदासी दया सहानुभूति संवेदन

आर्त शोक के आदिम बहुरूपी स्वांग लिए

 

मधु गंधा स्मृतियों की लहरें हिलोरें लेतीं

तोड़ देना चाहतीं हैं बरबस बांधे तटबंधों को

अंतर्मन के संदेश मिलते रहे हवा के परों पर

संध्या घर लौटती पंछियों की पांतों के साथ

 

पर भीतर बहती बेचैन धारा के हाहाकारों ने

पंगु कर दिया है अंतर्मन के एहसासों को

भीतर की गंगा में शेष हैं बधिर जल प्रवाह

गुने जाने वाले वेदनार्त सुरों के महोत्सव

 

और बीते पलों के अशोभन शव देह मात्र

जाग जाती है नदी पुनः साक्ष्य देने के लिए

उन निर्वासित क्षणों की घनीभूत प्रगाढ़ पीड़ा

साथ ही सूख जाती है अंतर्मन सलिला

महाप्रलय की शांति लेकर ………

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र