हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ तो कुछ कहूँ…… ☆ – श्री हेमन्त बावनकर
हेमन्त बावनकर
( काफी समय से ह्रदय विचलित था। चाहकर भी स्वयं को रोक न सका और जो कुछ मन में चल रहा था लिख दिया। आप निर्भया नाम दें या कुछ भी। कल्पना किया है कि वे सम्माननीय आत्माएं आज क्या सोचती होंगी। प्रस्तुत है “तो कुछ कहूँ…… ” )
जिस किसी
‘स्त्री’ देह ने
किसी भी अवस्था में
मृत्यु तक का सफर
तय किया हो बलात।
जिस किसी को
तुम कहते हो ‘स्त्री’
या देवी साक्षात।
किन्तु,
कुछ लोगों के लिए
सिर्फ और सिर्फ
‘स्त्री’ देह हूँ
यदि पढ़-सुन सकते हो
तो कुछ कहूँ……
जिस किसी की
तुम बचा न सके
अस्थियाँ तक
मैं उनका प्रतीक हूँ
और
जिस किसी ‘स्त्री’ देह को
तुमने सिर्फ देह समझा था
मैं उन सबका अतीत हूँ
यदि उस अतीत में
झांक सकते हो
तो कुछ कहूँ……
हर बार की तरह
हो गई एक अनहोनी।
एक ब्रेकिंग न्यूज़ आई
फैला गई सनसनी।
राष्ट्र के
अंतिम नागरिक से
प्रथम नागरिक तक ने
मानवीय संवेदना
और
राष्ट्रधर्म के तहत
अगली ब्रेकिंग न्यूज़ तक के लिए
बहाये थे आँसू।
फिर व्यस्त हो गए हों
राष्ट्र धर्म कर्म में
तो कुछ कहूँ…….
लोकतन्त्र के तीन स्तम्भ
छुपाते रहे चेहरा
लिखते रहे
मेरा काला भविष्य सुनहरा
और
चौथा स्तम्भ
तीनों स्तंभों पर
देता रहा पहरा
मैं देखती रही निःशब्द
यदि तुम कुछ देख सकते हो
तो कुछ कहूँ……
एक स्तम्भ करता रहा
एक दूसरे पर दोषारोपण
किसकी जुबान कब फिसल गई
किसके समय कितनी देह
कुचल दी गई
गिनाते रहे हादसों के आंकड़े
यदि आंकड़े बढ़ने
कुछ कम हो गए हों
तो कुछ कहूँ……
कोई स्तम्भ ढूँढता रहा
कानून की धाराएँ
किस धारा में
किस दोषी को बचाया जा सकता है
किस धारा में
मुझे दोषी बनाया जा सकता है
कितने सामाजिक दबाव में
मुझे निर्दोष बनाया जा सकता है
यदि दोषारोपण थम जाये
तो कुछ कहूँ……
एक स्तम्भ ढूँढता रहा
किसके क्षेत्र में
पड़ी रही मेरी ‘स्त्री’ देह
यदि जीवित रहती तो
नजरें झुकाये देती रहती
न सुन सकने लायक
प्रश्नों के उत्तर
उन प्रश्नों ने वही कुछ
मेरी आत्मा के साथ किया
जो कुछ
मेरी देह के साथ हुआ
लज्जा से झुकी आँखें
यदि उठ सकती हों
तो कुछ कहूँ……
चौथा स्तम्भ के चौथे नेत्र
तो तब तक ढूंढ चुके थे
मेरी ‘स्त्री’ देह
ब्रेकिंग न्यूज़ के लिए
तैयार कर रहे थे
कुछ तथाकथित विशेषज्ञों को
शाम की निरर्थक वार्ता के लिए
यदि उनकी टी आर पी
बढ़ चुकी हो
तो कुछ कहूँ……
क्या फर्क पड़ता है ?
दोषी को सजा मिलती है
या
निर्दोष को
जीवित रहती तो
‘स्त्री’ देह सहित
पल पल मरती
यदि जी भी जाती
तो क्या कर लेती ?
कानून के हाथ बड़े हैं
या
अपराधी के हाथ
यही नापती रह जाती
एक एक पल
सबकी निगाहों से
मेरी ‘स्त्री’ देह रौंदी जाती।
जीते जी ससम्मान जी पाती
तो कुछ कहूँ……
ऐसे नाम में क्या रखा है
जिसमें कोई नया उपनाम
कैसे जुड़ सकता है?
निर्भया नाम के साथ
जीवन के उस मोड़ से
कोई कैसे मुड़ सकता है ?
यदि कोई मुड़ने दे
या कोई मुड़ सकता हो
तो कुछ कहूँ……
देख सकती हूँ
संवेदनशील दुखी चेहरे
हाथों में मोमबत्तियाँ लिए
‘स्त्री’ अस्मिता के नारों के साथ।
यदि उनके हाथों की तख्तियाँ
गिर गई हों
और
मोमबत्तियाँ बुझ चुकी हों
तो कुछ कहूँ……
मेरी ‘स्त्री’ देह को
‘स्त्री’ देह ही रहने दो
‘स्त्री’ देह को
जाति-धर्म-संप्रदाय से मत जोड़ो
सर्वधर्म सद्भाव के
ताने बाने को मत तोड़ो
यदि मेरी ‘स्त्री’ देह में
छोटी सी गुड़िया
प्यारी सी बहना
किसी की प्रेयसी या पत्नी
किसी की बेटी या माँ
देख सको
तो कुछ कहूँ ……
अत्यंत दुखी हूँ
माँ और पिता के लिए
उनके आँसू तो
कब के सूख चुके हैं
मेरी अस्थियां बटोरते
मेरी कल्पना मात्र से
बुरी तरह टूट चुके हैं
यदि मुझे ससम्मान वापिस
वो दिन दुबारा दिला सको
तो कुछ कहूँ ……
मुझको अब उनकी आंखे
कैसे भूल पाएँगी
मेरी स्मृतियाँ
उनको जीवन भर रुलाएगी।
मेरी नश्वर ‘स्त्री’ देह
अपना सम्मान और
अपना अस्तित्व खो चुकी हैं
अगली निर्भया की प्रतीक्षा में
सो चुकी हैं
ऐसे में अब कुछ कहूँ भी
तो क्या कहूँ …..
© हेमन्त बावनकर, पुणे