श्री आशीष कुमार 

Retired दोपहर

(श्री आशीष कुमार जी की एक प्रयोगात्मक कविता।)
वो दोपहर अब नहीं आती
वो दोपहर जिसकी गोद के किसी कोने में कुछ बच्चे
धूल में धुले हुए कंचे या गीली डंडा खेलते थे।
कुछ बच्चे उस दोपहर के गले में
उचक कर झट से अपनी हाथो की माला डाल कर
उसके गले में लटक कर झूला झूलने लगते थे।
वो दोपहर जिसमे खाने के बाद
पांच मिनिट की झपकी भी होती थी
कहीं पर चार -पांच लोग बैठ कर
ताश खेलते दिख जाते थे ।
वो प्याऊ का ठंडा पानी
जो दोपहर की प्यास बुझाता था,
उसके घड़े में छेद हो गया है,
पास में ही कुछ प्लास्टिक की बोतल रखी रहती है उसके,
उस दोपहर की प्यास उन बोतलों के पानी से नहीं बुझती है।
पकड़म-पकड़ाई जैसे खेल
अब दोपहर के सूनेपन को चिढ़ाते नहीं है।
त्यौहारो और उत्सवों के अपनेपन की आवाजें
अब उसे शोर लगने लगी है
अब वो दोपहर Retire हो गयी है।
अब उसकी जगह एक नयी दोपहर ने ले ली है
जो अपने को फिट रखती है
सूट बूट में रहती है।
ये नयी दोपहर
अब चार दीवारों से बाहर नहीं निकलती है।
वरना गर्मियों में लू लगने से,
बारिश में भीग जाने से
और
सर्दी में ठण्ड से इसकी तबीयत खराब हो जाती है।
ये नयी दोपहर
अपनी गोदी में बच्चो को नहीं बैठने देती।
क्योकि,
थोड़ी modern हो गयी है।
बल्कि पकड़ा देती है उनके हाथो में मोबाइल।
अब ज्यादातर जगह
ये नयी दोपहर ही मिलती है
वो पुरानी दोपहर
अब कही कही मजदूरो के पसीनो में,
किसानो के हलो में
और
गरीबो की लाचारी में बेबस सी दिखाई दे जाती है।
पर शायद ये ही नियम है
पुराना जाता है
और
उसकी जगह नया आता है……….
© आशीष कुमार 
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