सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 9 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

अंडमान जाने को मिलना मेरे लिए बहुत ही सौभाग्य की बात थी। यह सब यादें मैंने  अपने मन में अभी भी संभाल कर रखी है।

अंडमान जाने के लिए मैंने पूरी तरह से तैयारी की थी। मेरे पापा की मदद़ से सावरकर जी की ‘जन्मठेप’ किताब का प्र.के. अत्रेजी द्वारा किया हुआ संक्षिप्त रूप मैने सुना। इसलिये मेरी मन की तैयारी हो गई। हम सिर्फ सफर पर नहीं जा रहे हैं बल्कि एक महान क्रांतिकारक के स्पर्श से पावन हुई भूमि को प्रणाम करने जा रहे हैं, यह मैंने मन में ठान लिया और वैसा अनुभव भी किया। लगभग १२८ सावरकर प्रेमी, सावरकर जीं के लिए आदर रखने वाले वहां गए थे। महाराष्ट्र, कर्नाटक, दिल्ली ऐसे प्रांतों से प्रेमी इकट्ठे हुए थे। ऐसा लग रहा था कि सब लोगों की एकता जागृत हो गई है। हम सब लोग हरिप्रिया एक्सप्रेस से पहली बार तिरुपति गए। बेलगाम स्टेशन पर सब का भव्य स्वागत हुआ। सावरकर जी के तस्वीर को फूलों की माला चढ़ाई। छोटा सा भाषण भी हुआ। नारेबाजी से बेलगाम स्टेशन हिल गया, आवाज गूंजने लगी। वह अनुभव बहुत रोमांचक था। हम चेन्नई पहुंच गए। चेन्नई से अंडमान हमारा ‘किंगफिशर’ का हवाई जहाज था। मेरे साथ मेरी बहन तो थी ही लेकिन बाकी लोगों ने भी मुझे संभाल लिया।

एयर होस्टेस ने भी बहुत मदद की। वह मेरे साथ हिंदी में बोल रहे थे। उन्होंने हवाई जहाज का बेल्ट कसने के लिए मेरी मदद की। इस सफर के कारण मैंने अपनी जिंदगी की सबसे बड़ी ऊंचाई को छू लिया। हवाई जहाज का सफर अच्छी तरह से हो गया और सावरकर जी जिस कमरे में कैद थे वहां उनको प्रणाम करने का अवसर मिला।

अंडमान में उतरने के बाद हम सब सावरकर प्रेमियों को फिर एक बार सावरकर युग का अवतार हुआ है ऐसा लगा। हम सब सावरकर प्रेमियों ने तीन दिन के कार्यक्रम की तैयारी की थी। अंडमान में ‘चिन्मय मिशन’ का एक बहुत बड़ा सभागार है।वहाँ बाकी सब लोगों के कार्यक्रम हो गए। पहले दिन बेलगाम का विवेक नाम का लड़का था। उसका कद सावरकरजी की तरह ही था, वैसा ही दुबला पतला। उसके हाथ पैर में फूलों की माला डालकर जेल तक हमने जुलूस निकाला। सावरकर जी को जैसा ध्वज अपेक्षित था, वैसा ही केसरी ध्वज और उस पर कुंडलिनी शक्ति लेकर गए थे। वही ध्वज लेकर सब लोगों ने बड़े आदर के साथ प्यार से सावरकर जी के उस कमरे तक जाकर उनको प्रणाम किया। वह जेल बहुत ही भयावह लग रही था। वह बड़ी जेल, बड़ी जगह, फांसी का फंदा, जहां कैदियों को मारते थे वह जगह, सब सुनकर मैं हैरान हो गई। सावरकर जी जो पहनते थे उस कोल्हू को मैंने हाथ लगा कर देखा तो मैं हैरान हो गई। कोल्हू याने कि जिसे बैल को बांधकर जिससे तेल निकाला जाता है, उसी कोल्हू को बैल की जगह सावरकर जी को बांधकर ३० पौंड तेल निकाला जाता था। अपनी भारत माता के लिए उन्होंने कितने कष्ट उठाए, अत्याचार सहे, कितनी चोटें खाई उसकी याद आयी तो मेरे शरीर पर रोमांच उठ गए। आंखों से आंसू आते थे। उनके त्याग की कीमत हम लोगों ने क्या की? ऐसा ही लगता था, अफसोस होता है।

हमारे साथ दिल्ली के श्रीवास्तव जी थे। वे ७५ साल के थे। आश्चर्य की बात यह है कि उनके ५२ साल तक उनको सावरकर जी कौन थे यह मालूम ही नहीं था। उनका कार्य क्या है यह भी मालूम नहीं था। लेकिन एक बार उनके कार्य की महानता, उनका बड़प्पन मालूम पड़ा तो वह इतने प्रभावित हो गए कि उन्होंने सावरकर जी के कार्यों पर पी.एच.डी. हासिल की।

श्रीवास्तव दादाजी नें हमें जेल के उस जगह पर सावरकर जी की खूब यादें बताई। उस में से एक बताती हूं, अपने एक युवा क्रांतिकारी को दूसरे दिन फांसी देना था, तो जल्लाद ने उनको पूछा “तुम्हारी आखिरी इच्छा क्या है?”, उस पर वह बोले, “मुझे उगता हुआ सूरज दिखाओ”। तो जल्लाद ने हँसकर कहा, “तुम लोगों के लिए मैं ही सूरज हूँ।”  उस पर वह क्रांतिकारक ने तुरंत उत्तर दिया “तुम डूबता हुआ सूरज हो,  मुझे उगता हुआ सूरज दिखाओ, मुझे सावरकर जी को देखना है”, धन्य है वह क्रांतिकारी ।

वहाँ के हॉल में कोल्हापुर के पूजा जोशी ने, ‘सागरा प्राण तळमळला’ यह गीत पेश किया। रत्नागिरी के लोगों ने सावरकर और येसु भाभी में जो वार्तालाप था वह पेश किया। इसलिए मैंने कहा कि उधर सावरकर युग छा गया था।

अपनी मातृभूमि को परतंत्रता के जंजीरों से मुक्त करने के लिए सावरकर जी ने कितने कष्ट उठाए, अत्याचार सहे; यह सब आज की युवा पीढ़ी को समझना ही चाहिए। इसीलिए हमारे सांगली के ‘सावरकर प्रतिष्ठान’ के लोग आज भी नए-नए कार्यक्रमों का आयोजन कर रहे हैं।

सब लोगों ने सावरकर जी की ‘माझी जन्मठेप’ यह किताब पढ़नी चाहिए, ऐसी मैं सबसे विनम्र प्रार्थना करती हूँ।

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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