सुश्री शिल्पा मैंदर्गी 

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 13 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

प्रात्यक्षिक इम्तिहान की मेरी तैयारी जोर से चल रही थी। मेरे मन में जो भय था, वह भी पूरी तरह से चला गया था। कब परीक्षा लेने के लिए अध्यापक आयेंगे और मेरा  इम्तिहान लेंगे इसकी मुझे प्रतीक्षा थी। मन में परीक्षा का भय जरूर था। अब तक पूरी दृष्टि जाने के बाद चौथी कक्षा से लेकर बी.ए. तक की परीक्षा में पिछले साल राइटर की मदद से यशस्विता के साथ संपन्न की थी। अब तो एम.ए. की परीक्षा की पढ़ाई उच्चतर की थी। उसके लिए मुझे संदर्भ ग्रंथ को पढ़ना जरूरी था। हर रोज गोखले चाची के साथ जोर से पढ़ना शुरू था। इसके लिए हर रोज दोपहर ३:०० से ५:०० बजे तक जोर से पढ़ना शुरू था। तत्वज्ञान की बड़ी-बड़ी किताबें पढ़ना, सुनना, उसका अर्थ, उसके कठिन नाम और संकल्पना, जटिलता कुछ समझ में नहीं आता था। चाची और मैं दोनों बहुत हंसते थे, फिर भी पढ़ना नेकी से शुरू था। ऐसी पेचीदा पढ़ाई के वक्त कभी-कभी मम्मी तो कभी-कभी पिताजी इलायची वाली चाय बना कर लाते थे, कभी अदरक वाला शरबत भी बना कर लाते थे और हमारी खुशियां बढाते थे। गोखले चाची जब पढ़ाती थी तब मैं टेप रेकॉर्डर पर उसकी कैसेट बना कर रखती थी। जब मुझे वक्त मिलेगा तब मैं वह सुनकर मेरी मस्तिष्क में जमा करके सेव करके रखती थी। इसी प्रकार सभी विषय की मेरी पढ़ाई जोर से आगे बढ़ रही थी।

टी.म.वी. विद्यापीठ से मैं परीक्षा देती थी उनका भी मुझे बहुत बड़ा सहयोग मिलता था। पेपर में आने वाले सवालों का अंदाजा लेने के लिए मैं फोन करके पिछले सालों की परीक्षा के पेपर मंगवा लेती थी। उन्होंने भी अच्छी तरह से मुझे सहयोग दिया था। थोड़ी देर हो गई तो मेरा फोन बंद हो गया ऐसा समझ लेना चाहिए। विद्यापीठ के अध्यापक भी मेरी आवाज पहचान गए थे। मैं पूरी अंध होकर भी फोन करती थी उसका उनको अभिमान था। मुझे मदद करने के लिए वह तैयार रहते थे। मुझे प्रात्यक्षिक परीक्षा देने के लिए राइटर को पहले ही तैयार करके रखना पड़ता था। मुझे मेरा राइटर ऐसा चाहिए था, जिसकी लेखनी और अक्षर अच्छी हो, उसने मैंने कहने के तुरंत ही जल्दी जल्दी लिखना चाहिए। जो उम्र से मुझसे और शिक्षा से छोटी हो। भगवान के कृपा से “श्रद्धा म्हसकर” नाम की लड़की मुझे मिली। मेरी अच्छी सहेली भी बन गई। प्रभु की कृपा से मेरे पेपर मेरे मन में जैसा चाहिए था उसी तरह अच्छी तरह से लिखे थे। पेपर लिखना अत्यंत कठिन था। हॉल में, मैं और श्रद्धा दोनों ही रहते थे और राइटर हमारे पिछले बेंच पर बैठते थे। मैं जो बताती हूं, हर एक शब्द वैसे का वैसा  लिखती थी या नहीं,  दूसरा कुछ नहीं पड़ रहा है,  इस पर अध्यापक कड़ी नजर रखते थे। इसी तरह मेरी प्रात्यक्षिक और पेपर लिखने की परीक्षा अच्छी तरह से संपन्न हुई।

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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डॉ भावना शुक्ल

प्रेरणास्पद