श्री अजीत सिंह
(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं। इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज श्री अजीत सिंह जी द्वारा प्रस्तुत है ई-अभिव्यक्ति के जीवन-यात्रा स्तम्भ के अंतर्गत ‘’सूरज पुनः उठेगा …. युवा कवि स्व. महीप प्रशांत ’। हम आपकी अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय-समय पर साझा करते रहेंगे।)
(वानप्रस्थ में हिंदी पखवाड़ा – युवा कवि स्व महीप प्रशांत का स्मरण को याद किया)
कुरुक्षेत्र में पले बढ़े महीप प्रशांत मात्र 21 वर्ष की आयु में दुनिया को अलविदा कह गए पर अपने पीछे उच्च स्तर की साहित्यिक रचनाओं का जो अच्छा खासा खज़ाना छोड़ गए हैं, वह उन्हें अमर बनाए रखेगा।
हिंदी पखवाड़े के उपलक्ष्य में आयोजित एक वेबिनार में हिसार की वानप्रस्थ संस्था ने जहां एक ओर हिंदी भाषा के इतिहास, विकास, चुनौतियों और संभावनाओं पर विचार किया वहीं युवा कवि प्रशांत की जीवनी और उनकी साहित्यिक यात्रा पर भी गंभीर विचार किया।
पुणे से ऑनलाइन जुड़ी प्रशांत की छोटी बहन दीपशिखा पाठक ने श्रद्धांजलि स्वरूप उनके जीवन व रचनाओं पर प्रकाश डाला और उनकी कुछ कविताओं का पाठ किया।
‘श्रृंखला की कड़ियां ‘ शीर्षक की कविता में वे कहते हैं:
‘अंधकार से संघर्ष में ऊबा हुआ
गहन निराशा में डूबा हुआ
क्षितिज पर सूरज अस्त हो रहा था।
उदीयमान क्षुद्र तारकों का सूर्य की पराजय पर उल्लास.
यही नहीं-
पर्वतों की ओट से झाँकता अंधकार;
अभी भी सूर्य के डर से काँपता अंधकार
भी छिपा हुआ कर रहा था गगनभेदी अट्टहास।
और मैं एक मूक दर्शक देखे जा रहा था-
विस्मृति का विलास
निवृत्ति का उपहास!
हाँ! सूरज हार गया।
अंधकार को नष्ट करने का प्रण लिए
सदियों से उससे लड़ता हुआ
सूरज इस बार भी हार गया!
पर नहीं-
वह पुनः उठेगा
मन में प्रण व विश्वास लिए
जीवन का प्रकाश लिए
और अंधकार का नाश लिए।
संघर्ष पुनः शुरू हो जाएगा
सृष्टि के अंत तक चलता जायेगा…..
क्यूँकि … संघर्ष ही जीवन है!!!
‘खिड़कियाँ’ शीर्षक की कविता सन 1983 में लिखी गई थी जब महीप प्रशांत केवल 20 वर्ष के थे।
“इस शहर के फुटपाथों में छेद देखे,
भूख से हमने चेहरे सफ़ेद देखे,
मरा जो कोई लू में,
तो उन्हें खेद हुआ अख़बारों में-
छोटी सी बातों में
हमने बड़े भेद देखे,
और अपन चुप रहे,
देखा किए,
कुछ ना कहा,
एक खिड़की थी खुली,
उठे, उठ कर बंद कर ली।
खिड़कियाँ भी बहुत हैं
यहाँ ताले भी बहुत हैं
ज़िंदा रहने के यूँ तो
मसाले भी बहुत हैं।
पर साँस लेने को भी तो
कुछ हवा चाहिए
चारों तरफ़ यहाँ तो
जाले भी बहुत हैं।
इन जालों के नीड़ में
जग को विचरते देखा है,
सड़क की धुंद में
आसमाँ को डरते देखा है,
देखा है इस खिड़की से अपना जनाज़ा रोज़ उठते हुए
… और .. अपन चुप हैं,
देखा किए हैं.. क़ुछ न कहा।
महीप प्रशांत की भावभीनी याद के इलावा हिंदी दिवस समारोह की चर्चा में साहित्य से जुड़े और भी कई व्यक्ति शामिल हुए। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर डॉ दिनेश दधीचि ने कहा कि हिंदी में इसकी 49 लोकबोलियों के शब्द लिए जाने चाहिएं ।
आकाशवाणी के वरिष्ठ अधिकारी रहे पार्थसारथी थपलियाल का कहना था कि यूं तो हिंदी का इतिहास करीबन एक हज़ार साल का है पर इसका वर्तमान परिष्कृत स्वरूप लगभग 150 वर्ष पूर्व भारतेंदु हरिश्चंद्र ने तैयार किया ।
पूर्व बिजली निगम अधिकारी डी पी ढुल, पूर्व जिला शिक्षा अधिकारी एस पी चौधरी, देविना ठकराल, वीना अग्रवाल, प्रो राज गर्ग, प्रो जे के डांग व प्रो सतीश भाटिया ने भी अपने विचार रखे।
गोष्ठी का संचालन करते हुए दूरदर्शन के पूर्व समाचार निदेशक अजीत सिंह ने कहा कि असीम विविधता के देश भारत में कोई एक भाषा राष्ट्र भाषा नहीं हो सकती इसीलिए संविधान के 8वें अनुच्छेद में 22 क्षेत्रीय भाषाओं को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता दी गई है। हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया है। हिंदी अगर सभी प्रांतीय भाषाओं के शब्द अपना ले तो यह न केवल समृद्ध होगी बल्कि इससे राष्ट्रीय एकता को भी बढ़ावा मिलेगा।
वेबिनार में विभिन्न स्थानों से लगभग 30 व्यक्तियों ने भाग लिया।
© श्री अजीत सिंह
पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन
संपर्क: 9466647037
(लेखक हिसार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे दूरदर्शन हिसार के समाचार निदेशक के रूप में कार्यरत रह चुके हैं। )
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈