सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -5 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

जब मेरे घर मेरे माता पिता को मालूम पडा कि, मैं अब से कुछ भी नही देख पाऊॅंगी, सचमें मैं कुछ भी नही कर पाऊॅंगी, क्या बीती होगी उन पर। अब मेरी लडकी क्या करेगी? ऐसा सोचना ही बहुत कठिन था।  फिर भी यह एव्हरेस्ट पर चढाई करने जैसा था और यह उन्होंने तय किया। उन्होंने मुझे इतना समझा दिया कि मुझे लगा जैसे मैं आनंद के सागर डूब रही हूँ ।

घर में हमेंशा मां के पीछे-पीछे भागती थी। रसोई घर में इधर-उधर घूमती थी। मां को हमेंशा मेरी तरफ ध्यान देना पडता था। एक दिन मां फुलों की टोकरी मेरे पास लेकर आयी। उसमें से लाल रंग के फूल बाये हाथ में और पीले रंग का फूल दाहिने हाथ में रखा। मेरा हाथ-हाथ में रख कर मुझे स्पर्श ज्ञान से दिखाया। मैंने सीखा भी जल्दी से। सुई में धागा डालकर फुलों की माला बनाना सिखाया। जल्दी ही बाये हाथ से और दाहिने हाथ से, लाल-पीला फूल डालकर दो-दो रंग की माला तैयार होने लगी। बहुत खूबसूरत माला तैयार हो गई। मां का प्रयोग यशस्वी हो गया। मुझे ये करने के लिए बंधन नही किया। जम गया तो जम गया, हम जीत जायेंगे ऐसा ही सोचा। सब्जी साफ करके, उसे काटना भी सिखाया। गाजर, नारियल के छोटे-छोटे टुकडे करना भी सिखाया। मै आज भी अपने आँसू पोछती रहती तो, आज मैं अपना काम आपको दिखा नही सकती थी। घर के काम की ट्रेनिंग मां ने दिया था, अच्छी तरह से। बाहर स्कूल, पढाई के अलावा, वक्तृत्व के पाठ पिताजी ने पढा-पढाकर तैयार किया था। सच में माता और पिताजी का बहुत बडा योगदान है, मेरे व्यक्तित्व विकास में। दोनो ही मेरे लिये बहुत कीमती है। मैं रसोई नही बना सकती यह मुझे मालूम है, पर मैं मां को बहुत कामो में मदद कर सकती हूँ । आज भी मैं मां को मदद कर सकती हूँ।

मैं साधारण तौर पर सातवी कक्षा मैं थी, तबसे ही टेप-रेकॉर्डर, टेलीफोन आ गया था। गाना सुनने के बाद बंद कैसे करना, यह मैंने हाथ के स्पर्श से सीख लिया था। मेरे भाई-बहन ने मेरा बटन बंद करना, चालू करना देखकर, मुझे प्ले, स्टाॅप, रेकॉर्ड बटनों की पहचान कर दी थी। रिवाइंडिंग कैसे करना, यह भी सिखाया। यह सब इस्तेमाल कैसे करना, ये मैं आसानी से सीख गई। M.A. की पढाई करते समय, अध्यापकों ने जो-जो सिखाया, वो सब में रेकॉर्ड करती थी। जब में पढना चाहूँ, तब मैं पढती थी और बार-बार सुनकर ध्यान में रखती थी। ऐसा ही नया आया हुआ फोन देखकर, उत्सुकता से मैं उसकी पहचान कर सकती थी। मेरे भाई ने ‘ how to operate phone?’ मुझे सिखाया था। रिसिव्हर हाथ में देने के बाद १ से ९ अंको तक की पहचान कर दी थी। कैसे दबाना यह भी आसानी से सिखाया था। २२ अंक हो तो दो वाला बटन दो बार दबाना ऐसा सिखाया। मैं वैसा ही करती थी। मुझे अपने आप नंबर ध्यान में आने लगे। बार-बार ध्यान में रखने की जरूरत नही पड़ी।

रेडिओ लगाना आज भी मुझे आसान लगने लगा और मुझे खूब अच्छा लगने लगा। कुछ साल पहले मेंरी आवाज मैं रेडिओ से सुनूंगी, ऐसी मुझे बिलकुल भी कल्पना नहीं थी। सांगली आकाशवाणी और कोल्हापूर आकाशवाणी से मेंरी आवाज प्रसारित भी हो गई,  है ना जादू!

सच में मुझे सब आता है, ऐसा नहीं है। बाहर जाने के लिये मैं आज भी किसी की मदद के बिना नहीं जा सकती। पहले पापा मुझे कहते थे, तुम्ही सफेद रंग की लकडी की काठी ला कर देता हुॅं। उसकी आदत हो जायेगी और तुम आसानी से चल पाओगी। मेरे जैसे हठ करने वाली लडकी सुनेगी तो ना!

हर रोज मैं पाठशाला जाती थी। इसलिये मुझे मॅडम का सिखाया हुआ सब समझ में आता था। इसलिये ब्रेल  लिपि सीखने की मुझे जरूरत नहीं पडी। इस में कुछ महानता भी नहीं लगी। एक-दो बार मैंने समझने की कोशिश की थी। लेकिन उधर मेंरा मन नहीं लगा। मैने सुनकर सीखने का, ध्यान में रखने का, ऐसी ही घोडी की चाल चलने का तय किया। मां कहती थी, जब मैं छोटी थी तब बहुत भाग-दौड करती थी। सीढ़ियाँ भी सहजता से जल्दी-जल्दी उतरती थी। देखने वाले को डर लगता था। दूसरों को, लोगों को मेंरी चिंता लगती थी।

मेरी कंपास, पेन्सिल, पेन सब जगह पर रखती थी। फिर भी मेरे भाई-बहन को मेंरा सामान उठाकर ले जाने की आदत थी। मेरे डांटने के बाद, गुस्सा करते थे। फिर थोडी देर के बाद सब खेलते थे।

मेरे चाची के मम्मी ने स्वेटर बनाना सिखाया था। मैंने रुमाल भी बनाया था। मैने वह रूमाल आज भी संभाल कर रखा है। मैं आज भी लॉकर का इस्तेमाल करती हूॅं।  खुशी मिलती है इसके लिए आज भी रुमाल बनाती हूॅं।

घर में मेंहमान आने के बाद पानी लेकर आती थी। मां कि बनाई हुई चाय भी देकर आती थी। सब लोगों को बहुत आश्चर्य लगता था। मां को मेंरी थोडी मदद होनी चाहिये, उसका थोडा काम हलका होना चाहिए, उसे थोडा ज्यादा आराम मिलना चाहिए, इसके लिये ही मैने सब काम सीख लिया था।

पिछले साल मेरे पिताजी को अस्पताल में लेकर जाना था। पहले मैं डॉक्टर चाचा की फोन  पर अपॉइंटमेंट लेती थी। पापा को रिक्षा में बिठाकर लेकर जाती थी।  लोगोंको कमाल सा लगता था।  उनका प्यार उमड आता था।

लोगों की आवाज सुनकर बराबर जान लेती थी। आज भी लोगों को आवाज से पहचान लेती हूं। अब क्या कहें, मिलने वाले सब लोग मुझसे प्यार ही प्यार करने लगते है, बडी लगन से। मैंने दिमाग में इतना सोच कर रखा  था कि, मैं सब ध्यान में रख सकती हूं। हमारे घर में नया वाॅशिंग मशीन आने पर उसको कैसे चलना चाहिए, यह भी सीख लिया था। आज भी मैं ही वॉशिंग मशीन ऑपरेट करती हुॅं, मां को मदद करने के लिए। उसे थोडा आराम भी मिले। इस बात से मुझे खुशी मिलती है।

कॉलेज की पढाई, वक्तृत्व स्पर्धा, गॅदरिंग, सहेलियों के साथ रहना, मस्ती करना और मां के सिखाये हुए सब काम करते-करते मैने B.A. की पदवी कैसे हासिल की, यह मेरे समझ में भी नहीं आया।

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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