सुश्री शिल्पा मैंदर्गी
(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)
☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -6 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆
(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)
(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )
कॉलेज में मजा-मस्ती करते करते साल कैसे गुजर गया मालूम ही नही पड़ा कुछ दिन के बाद रिझल्ट आ गया और मैं मराठी विषय लेकर बी.ए. अच्छे मार्क्स लेकर पास हो गई। सबको बहुत खुशी हो गई। सब लोगो ने मुझे बधाई दी। प्यार से मिठाई खिलाई।
अब आगे क्या करना है, मन में सवाल उठने लगे। कोई लोग बोले, मराठी में इतने अच्छे मार्क्स मिले है, एम.ए. करो। कोई बोलने लगे, तुम्हारी आवाज इतनी मधुर है, तो गाना सिखो।
बचपन से ही मुझे नाचने का बहुत शौक था। मुझे चौथी कक्षा तक अच्छा दिखाई देता था। जन्म से ही मोतियाबिंद था, तो भी ऑपरेशन के बाद थोडा-थोडा दिखाई देने लगा था। बहुत छोटी थी तब से मोतियाबिंद था इसके लिए कांचबिन्दु बढ़ गया। चौथी कक्षा के बाद से दृष्टि कम होने लगी थी।
बी.ए. होने के बाद २१ साल में मैंने भरतनाट्यम सीखना शुरू किया। भरतनाट्यम ही क्यूँ? मुझे अभी भी याद आता है। मेरे पिताजी विद्या मंदिर प्रशाला, मिरज, पाठशाला में अध्यापक थे। उस वक्त दिल्ली में एक कोर्स में उनको नया प्रोजेक्टर स्लाइड्स पुरस्कार के रूप मे मिला था। उसमें भारत के प्राचीन मंदिरों के स्लाइड्स पुरस्कार के रूप मे मिले थे। भारतीय नृत्य की सब पहचान, नृत्य की अदाकारी मिली थी। भगवान की कृपा से मुझे जब अच्छी तरह से दिखाई देता था, तब ही नृत्यमुद्रा, सुंदर पहनावा, अच्छे-अच्छे अलंकार मेरे मन को छू गए। मेरी नजर तो चली गई, फिर भी मन में दृश्य अभी भी आइने के सामने वैसे ही है, जो मैने उस वक्त देखा था। उसका बुलावा मुझे हमेशा साथ देता आ रहा है। अच्छा पेड़ लगाया तो, अच्छी हवा में अच्छी तरह से फैलते है, और बडे होते है, ऐसा बोलते है ना? मेरा मन भी उसी प्रकार ही है। सच में यह सब मेरी नृत्य गुरु के कारण ही हुआ है। मेरी नृत्य गुरु मिरज की सौ. धनश्री आपटे मॅडम। मेरे नृत्य के, मेरे विचारधारा के प्रगति के फूल खिलनेवाली कलियाँ, मेरे आयु का आनंद और एक तरह से मेरे जीवन में बहार देने वाली मेरी दीदी सौ. धनश्री ताई यही मेरी गुरु, मेरी मॅडम।
ऐसे गुरु मुझे सिर्फ नसीब से मिले। मेरी माँ और पिताजी की कृपादृष्टी, भगवान का आशीर्वाद और दीदी का बडप्पन इन सब लोगों की सहायता से प्राप्त हुआ।
बी.ए. पास होने के बाद, मेरी नृत्य सीखने की इच्छा माँ और पिताजी को बतायी। मेरे पिताजी ने सोच समझ कर निर्णय लिया। मुझे कोई तो नृत्य सीखने के लिए गुरु ढूँढने लगे।
धनश्री दीदी के बारे मे मालूम होने के बाद पापाजी मुझे दीदी के पास लेकर गये। पहिला दिन मुझे अभी भी याद है। पापा ने मेरी पहचान दीदी से कर दी। मेरे लडकी को आपके पास नृत्य सीखना है, आपकी अनुमति हो तो ही। मेरा चलना, इधर-उधर घूमना, देखकर मुझे पुरा ही दिखाई नहीं देता, ऐसा उनको नहीं लगा। जब उनके ध्यान में आ गया, तब एक अंध लडकी को सिखाने की चुनौती स्वीकार ली। थोडी देर के लिये तो मैं स्तब्ध ही हो गई। बाद में दीदी ने सोच लिया कि मुझे यह चुनौती स्वीकारनी है तो सोचकर दो दिन के बाद बताऊंगी, ऐसा बोला। बादमें उन्होने हाँ कह दिया। उनका ‘ हाँ ‘ कहना मेरे लिये बहुत ही अहम था। मेरे जिंदगी में उजाला छा गया।
मुझे अकेले को सिखाने के लिए दीदी ने मेरे लिए बुधवार और शुक्रवार का दिन चुना था। एक दिन उनको सिखाने के लिए समय नहीं था। इसके लिये मुझे घर आकर बता कर गई। कोई तो मुझे छोडने के लिए आयेंगे और दीदी नहीं हैं, ऐसा नहीं होना चाहिये, इसके लिये दीदी खुद आकर बता कर गई। उनका स्पष्ट तरह से सोचना, उनकी सच्चाई, इतने साल हो गये तो भी वैसी ही है।
दीदी ने मुझे नृत्य के लिए हाथ पाँव की मुद्रा, नेक चलना, देखना, हँसना, चेहरे के हाव-भाव कैसे चाहिये, यह सिखाया। हाथ की मुद्रा कैसे चाहिये, यह भी सिखाया। पहली उॅंगली और आखरी उॅंगली जोडकर बाकी की तीन उँगलियाँ वैसे ही रखने को बोलती थी। पैरों की हलचल करते वक्त नीचे बैठ कर मेरे हाथ- पाँव कैसे चलना चाहिए, सिखाती थी। मेरे समझ में आने के बाद प्रॅक्टिस कर लेती थी। मेरी एम.ए. की पढाई ही बताती हूँ। गंभीर रूप से नृत्य करना, दशावतार का प्रस्तुतीकरण करना था। सच में मुझे ऐसा लगा कि मैं घोडे पर सवार होकर नृत्य कर रही हूँ। मुझे ये सब कर के प्रसन्नता मिली।
गाने के विशेष बोल, उसका अर्थ, यह सब प्रॅक्टिस से जमने लगा। पहले-पहले मैं शरीर से नाच रही थी। घर में आने के बाद प्रॅक्टिस करती थी। एक बार दीदी को ध्यान में आया की नाच-नाच कर मेरे पाँव में सूजन सी आ रही है। तब दीदी बोली नृत्य सिर्फ शरीर सें नहीं करना चाहिये। बल्की मन से, दिमाग से सोच कर, होशियारी सें मने में उतरना चाहिए। उन्होंने मुझे सौ बाते बतायी, मुझे उसमे से पचास की समझ आयी। दीदी ने मुझे नृत्य में इतना उत्तम बनाया कि आज मैं सो जाऊंगी तो भी कभी भूल नही पाऊंगी। नृत्य की सबसे टेढी चाल सीधी करके सिखाई। मन से नृत्य कैसे करना चाहिए, उसकी ट्रिक भी सिखाई। मुझे अलग सा, मन को प्रसन्न लगने लगा। अब मैं कुछ तो नया बडा नाम कर दूँगी, ऐसा लगने लगा। नृत्य करने का बहुत बड़ा आनंद मुझे मिल गया। मैं भरतनाट्यम की लडकी हूँ। पुरा मैंने सीख लिया है, ऐसा तो मैं नही मानूँगी। फिर भी गांधर्व महाविद्यालय मे सात साल परीक्षाऍं देती रही। आखिर परीक्षा में ‘नृत्य विशारद’ पदवी संपादन कर ली।
जो मैं कर नही सकती, वह आसानी से कैसे करे, यह मैंने मेरी बहन से सीख लिया था। मेरे माँ और पिताजी के बाद, मेरे लिये दीदी का स्थान बडा है। मेरे लिये इन लोगों का स्थान महान है। गुरु कैसे मिलते है, उसके उपर शिष्य की प्रगती निर्भर होती है। मेरे गुरुवर उच्च विचारधारा वाले, अध्यात्मज्ञान से परिपूर्ण हैं, बड़ा प्यार है। धनश्री दीदी जैसे गुरु ने बीस साल मुझे नृत्य की साधना सिखाई। जो-जो अच्छा मैने सीख लिया है, मेरे लिये अबोध और अद्भुत बात है। यही मेरा अनुभव हैं। यह सब मैं बता रही हूँ लगन से।
प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे
मो ७०२८०२००३१
संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी, दूरभाष ०२३३ २२२५२७५
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈