हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ सच्चे मानव परसाई जी ☆ – डॉ महेश दत्त मिश्र
डॉ महेश दत्त मिश्र
(डॉ महेश दत्त मिश्र महात्मा गांधी जी के निजी सचिव एवं पूर्व सांसद थे। जबलपुर विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र विभाग के प्रमुख भी रहे। मेरे अनुरोध पर परसाई के व्यक्तित्व एंव कृतित्व पर उन्होंने 1991 में ये लेख लिखा था। उनकी हस्तलिपि में मूल प्रति मेरे पास सुरक्षित है। – श्री जय प्रकाश पाण्डेय )
परसाई जी के जन्मदिन पर विशेष – सच्चे मानव परसाई जी
मुझे लगता है श्रीमान हरिशंकर परसाई जब इस दुनिया में आने लगे तो उन्होंने विधाता से एक ही चीज मांगी कि हमें इन्सानियत दे दो, बाकी चीजें हम अपने बल पर हासिल कर लेंगे। उनको यह भी पता था कि जिस जमीन पर वे जन्म ले रहे हैं वह गुलाम देश की है इसलिए वहां जिंदगी कांटों भरी होगी, इसलिए स्वतंत्रता संग्राम में किशोरावस्था के कारण जूझे नहीं पर जुझारूपन उनमें बढ़ता चला गया और आगे चलकर तो सामाजिक और कौटुम्बिक मुसीबतों की बाढ़ सी आती रही। यह शेर उन पर ही लागू होता है….
“इलाही कुछ न दे लेकिन ये सौ देने का देना है,
अगर इंसान के पहलू में तू इंसान का दिल दे,
वो कुव्वत दे कि टक्कर लूं हरेक गरदावे से,
जो उलझाना है मौजों में,
न कश्ती दे न साहिल दे।”
परसाई के जीवन की गाथा हर प्रकार के लंबे संघर्ष की है। हर लड़ाई में उन्होंने मानवता और पैनी संवेदनशीलता से काम लिया और उन्हीं दिनों जब कलम उठाई तो वहां भी संघर्ष पैदा हो ही गया। कविता लिखते, ललित साहित्य लिखते या आलोचना के क्षेत्र में उतर पड़ते तो इतना विवाद नहीं होता। उन्होंने मुख्यतः व्यंग्य का सहारा लिया जिसको बरसों साहित्य ही नहीं माना गया, पर वे क्या करते ? उन्हें आसपास और दूर तक सभी क्षेत्रों में विकृतियां, विसंगतियां, पाखंड दुहरापन, व्यक्तिवाद, निपट स्वार्थ दिखाई दे रहे थे। जिन मूल्यों और परंपराओं पर यह देश सदियों से टिका हुआ था उनका ढिंढोरा पीटकर भी उन्हें किस तरह तोड़ मरोड़ दिया जाए यह क्रम चल पड़ा था। राजनीति में यह ज्यादा हो रहा था पर उसका असर सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक व्यवहार पर पड़ना ही था, इन्हीं सब को लेकर परसाई जी ने व्यंग्य किए, पाठकों के मनोरंजन के साथ उनके अंदर तिलमिलाहट भरी, सब को हंसाया भी खूब….. पर उन सब फब्तियों की तह में छुपा हुआ और संवेदनशील पाठक को झकझोरता हुआ एक यथार्थ भी है जो हंसी को क्षणिक बनाकर दिमाग को बेचैन कर देता है और सामाजिक रूप से अति निष्क्रिय को भी यह चेतना देता है कि ये हालत बदलने चाहिए। परसाई जी को वामपंथी माना गया, कम्युनिस्ट भी कहा गया इसलिए दूसरे खेमे में उन्हें नकारने की तरकीबें चलतीं रहीं पर उनका लेखन आमतौर पर साम्यवादी लेखन से भिन्न रहा। उनके लेखन में जो मानवीयता और संवेदनशीलता थी और हर व्यंग्य में से कुछ दिशा बोध का संकेत था उससे उनका साहित्य किसी खेमे से बंध नहीं पाया, वह व्यापक होता गया, समय के साथ उसमें प्रौढ़ता आई और आजकल तो वह व्यंग्य के साथ साथ सामयिक सवालों पर जो चर्चा कर रहे हैं इसलिए वे दूसरे व्यंग्यकारों से कितना अलग हैं, सैद्धांतिक सूझबूझ के धनी हैं और समन्वयात्मक दृष्टिकोण लेकर चल रहे हैं यह सब स्पष्ट होता जा रहा है।
एक स्मृति
राजनीति पर धार्मिक एवं सांप्रदायिक कट्टरता के असर के बारे में सबसे पहले उन्होंने मोर्चा लिया। अभी कुछ दिन पहले ही महात्मा गांधी का प्रभाव कैसे व्यापक हो रहा है इस पर लिखकर उन्होंने अपनी निष्पक्ष और बेबाक बात कह डाली। पिछले जमाने में कभी सर्वोदय के वातावरण में देखी गई कुछ बातों पर उन्होंने कटाक्ष करके गांधी भक्तों को नाराज कर दिया था। स्वर्गीय पंडित भवानी प्रसाद मिश्र से बातचीत में मैंने परसाई का पक्ष लिया भी। भवानी बाबू साम्यवाद विरोधियों से घिरे रहते थे इसलिए मेरी बात कितनी उनके गले उतरी, पता नहीं, पर परसाई जी के व्यंग्य के महत्व को मानते थे।
बहुत लोग व्यंग्य लिख रहे हैं अच्छा भी है इसलिए स्थान बन गया है मैं इनमें तुलना नहीं करूंगा। मैं लेखन को साहित्यकार के जीवन से जोड़कर उसका मूल्यांकन करता हूं। मैंने परसाई जी को ही ज्यादा पढ़ा है इसलिए किसी लेख में लिख भी दिया है कि परसाई की संवेदनशीलता उनकी कौटुम्बिक संवेदनशीलता में से निकली है और मार्क्सवादी प्रभाव में वह व्यापक हुई है क्योंकि मार्क्सवाद के सिद्धांत और अमल में आप चाहे जो दोष या कमियां ढूँढ लें उसका विश्लेषण बहुत सही है और समतावादी दृष्टिकोण शाश्वत हो गया है।
परसाई को समझना है तो उनके कौटुम्बिक जीवन में जरूर झांको, इसके साथ ही उनके आत्मीयों का बढ़ता हुआ समुदाय उनके सच्चे मानव होने का सबूत देता है। एक सहज स्वाभाव का जिस्म जो बिस्तर पर पड़े रहकर भी स्वस्थ मन से लगातार कलम चला रहा है, आज के विक्षुब्ध वातावरण की नब्ज टटोल रहा है यह क्यों ?
परसाई जी 67 के हो गए हैं उनके लंबे जीवन की कामना करते हुए यह भी कहूंगा कि 80-85 तक वे इतने ही स्वस्थ रह गए तो महात्मा गांधी पर बड़ा उपकार होगा जो मैं उनका चेला होकर भी नहीं कर पा रहा हूँ जबकि विश्व शांति आंदोलन से शुरू से जुड़ा होकर मैं जब तब सम्मेलनों में गांधी का जिक्र करके साम्यवादी मित्रों के मुंह बनाने को भुगतता रहा हूं। अपनी बात को ज्यादा तफसील में नहीं कह पाया न लिख पाया कि विश्व शांति क्या सभी तरह की प्रगति बिना अहिंसात्मक संघर्ष के नहीं आएगी। संघर्ष तो लाजिमी दिख रहा पर उसका तरीका गांधी महराज से ही सीखना होगा, भविष्य में ये सच्चे मानव परसाई ही लिख पायेंगे, इसी कामना के साथ छोटे भाई परसाई का जय-जयकार।
साभार: श्री जय प्रकाश पाण्डेय