सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’
(“परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति के पाठकों से साझा करने के लिए नरसिंहपुर मध्यप्रदेश की वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’ जी का हृदय से आभार।)
सबसे गहरा घाव वो होता जो शब्दों से दिया जाता कि उसका कोई इलाज़ नहीं वो तो सीधा जाकर मर्म पर ही वार करता और ऐसा जख्म देता कि अगला टीस को न सह ही पाता और न कुछ कह पाता कि शब्द-बाण तो रह-रहकर चुभते कुछ इस तरह से हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा को स्थापित करने वाले विलक्षण प्रतिभा के धनी मध्यप्रदेश का गौरव कहलाने वाले और हर एक विषयवस्तु पर तिरछी नजर रखने वाले साहित्य शिरोमणि ‘हरिशंकर परसाई’ ने कलम रूपी हथियार की मदद से समाज की कुरीतियों ही नहीं हर एक विसंगति पर सटीक प्रहार करते हुये देश व समाज की देह में होने वाले पुराने से पुराने दर्द को भी मिटाने का सतत प्रयास किया कि ताकि इस तरह से वे एक ऐसा भारत बना सके जिसे देखकर कोई उसकी किसी भी प्रथा, सनातन परंपरा या किसी जात-पांत पर कोई ऊँगली उठा न सके कि ये इस विविध संस्कृति के पोषक धर्म-निरपेक्ष देश की वैश्विक पहचान हैं ।
इसलिये उन्होंने अपनी चाँद रूपी मातृभूमि पर धब्बे के समान दिखाई देने वाली छोटी-से-छोटी और बड़ी-से-बड़ी असमानता पर चुटीला कटाक्ष किया जिससे कि वो इन दाग़-धब्बों को आसमान की तरह फैली अपनी श्वेत चादर से विलग कर दाग़रहित होकर उभरे तो आजीवन हर विषय, हर परिस्थिति, हर व्यक्ति, हर नीति, हर घटना, हर प्रसंग, हर तीज-त्यौहार, हर सम-सामयिक मुद्दे, हर कमी, हर विशेषता और हर एक विचित्र दिखाई देने वाली बात को अपनी तेज-तर्रार कलम का निशाना बनाकर हंसी-हंसी में वो सब कह दिया जिसे यदि गुस्से में कहा या लिखा जाता तो शायद, उसका वो सर्वकालिक असर नहीं हो पाता कि मज़ाक तो बर्दाश्त किया जा सकता हैं लेकिन, क्रोध से क्रोध ही उपजता जिसके कारण उनका उद्देश्य बाधित हो जाता तो अपने हाथों में थामी हुई कलम को मीठी छूरी बनाकर ऐसा झटका दिया जैसे कोई कसाई किसी जानवर की गर्दन को एक झटके में ही हलाल कर देता हैं ।
कभी वो किसी धोबी की तरह समाज के उपर पड़े मटमैले आवरण को पटक-पटक कर धो उसे उजला बनाने का प्रयास करते तो कभी किसी डॉक्टर की तरह बड़ी निर्दयता से उसके घाव की चीर-फाड़ करते जिससे कि उसमें भरा हुआ सड़ी-गली कुरीतियों का मवाद बहर निक जाये तो समय-समय पर वे साहित्यकार से समाज सेवक बन एक जागरूक नागरिक होने के अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते यही वजह हैं कि उनका लिखा हुआ आज भी प्रासंगिक हैं कि कहने को भले ही समाज व समय में परिवर्तन हो गया लेकिन उसके भीतर अब भी बहुत गंदगी भरी हुई हैं जिसके दिखाई देने पर अक्सर उनका लिखा कोई वाक्य या व्यंग्य याद आ जाता और उनकी दूरदर्शिता का अहसास होता कि किस तरह से वे समय के पार देख लेते थे और आने वाली परिस्थितियों को महसूस कर उसका व्यंग्य में वर्णन कर देते थे तभी तो भ्रष्टाचार हो या फिर धर्मांतरण बहस या फिर राजनीति सब पर उनका लिखा हुआ कोई न कोई आदर्श लेखन जेहन में तैरने लगता हैं ।
साहित्य व समाज के ऐसे मर्मज्ञ और ज्ञानी आज ही के दिन अपने व्यंग्य से हम सबको एक अनूठा ज्ञान देने हम सबके बीच आये थे तो आज उनकी जन्मतिथि पर हम उनको ये शब्दांजलि अर्पित करते हैं और ये प्रयास करे कि जिस तरह के भारत का वे स्वपन देखते था या जिस तरह का वो इसे दुनिया के मानचित्र पर स्थापित करना चाहते थे वैसा ही कुछ सचमुच में कर पाये तो उनके शब्दों को वास्तविक मान-सम्मान दे पायेंगे ।
© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’*
नरसिंहपुर (म.प्र.)