हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ परसाई का मूल्यांकन क्यों नहीं? ☆ – श्री एम.एम. चन्द्रा
श्री एम.एम. चन्द्रा
(“परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति के पाठकों से साझा करने के लिए प्रतिष्ठित व्यंग्यकार, आलोचक, सम्पादक श्री एम. एम. चंद्रा जी, दिल्ली के हृदय से आभार। आप व्यंग्य आलोचना के सशक्त हस्ताक्षर हैं एवं वर्तमान में डायमंड पाकेट बुक्स संस्थान में सम्पादक हैं। )
परसाई का मूल्यांकन क्यों नहीं
‘जब बदलाव करना सम्भव था
मैं आया नहीं: जब यह जरूरी था
कि मैं, एक मामूली सा शख़्स, मदद करूं,
तो मैं हाशिये पर रहा।’
भारतीय इतिहास में हरिशंकर परसाई ही एक मात्र ऐसे लेखक रहे है, जो अपने रचनाकाल और उसके बाद आज भी व्यंग्य के सिरमौर बने हुए है। आज व्यंग्य क्षेत्र में व्यंग्य लिखने वालों की एक लम्बी कतार है जो लगातार लिख रही है और व्यंग्य की विकास यात्रा में अपना रचनात्मक योगदान भी दे रही है। इस समय व्यक्तिगत और सार्वजनिक स्तर पर व्यंग-विमर्श के नाम पर बड़ी तीखी और आलोचनात्मक बहस देखने को मिल मिल रही है, लेकिन इन विमर्शों से अभी निष्कर्ष निकलना अभी बाकी है, जिसमें परसाई को लेकर सबसे ज्यादा विभ्रम की स्थिति है।
साथ ही साथ वर्तमान परिदृश्य में यह भी देखने को मिल रहा है वर्तमान व्यंग्य लेखन को परसाई, जोशी, त्यागी या लतीफ़ घोघी जैसी शख्सियत से तुलना करके परखा जा रहा है। या उन लोगों से अपनी तुलना की जा रही है। इस आधार पर या तो रचना को एकदम नकार दिया जाता है या उस रचना को पूर्णतः सतही वाह-वाही तक सीमित किया जाता है।
व्यंग्य की समीक्षात्मक पदाति और आलोचनात्मक दृष्टि का सर्वथा अभाव देखा जाता है। अब सवाल ये उठता है कि इतनी विकसित परम्परा के बावजूद व्यंग्य का सौंदर्यशास्त्र और आलोचनात्मक दृष्टि का विकास संभव क्यों नहीं हो पाया है।आज भी परसाई को लेकर विभ्रम की स्थिति क्यों है? इसकी जांच पड़ताल के लिए वर्तमान को इतिहास की जड़ में ले जाकर देखना पड़ेगा।
मुझे ऐसा लगता है कि 1990 के बाद की दुनिया पूरी तरह से बदल चुकी है। आर्थिक राजनीतिक तौर पर नयी दुनिया हमारे सामने उपस्थित है। चीन की दीवार गिर चुकी है, दुनिया के दो ध्रुवीय केंद्र बिखर चुके है। भारत ही नहीं दुनिया के पैमाने पर वैचारिक स्तर की केन्द्रीय भूमिका निभाने वाली मनोगत शक्तियां पटल पर दिखाई नहीं देती, इसी लिए दुनिया भर की राजनैतिक पार्टियां वैचारिक भ्रम का शिकार है। आर्थिक नव उपनिवेशवाद आर्थिक और राजनीतिक तोर पर लागू करके नये तरह का वैश्विक बाजार स्थापित किया जा रहा है।
आधुनिक साहित्य और व्यंग्य भी इससे अछूता नहीं है। एक नये प्रकार का लेखन को प्रायोजित और प्रोत्साहित किया जा रहा है, जिसमें विचारों के महत्त्व को कम करके आंका जा रहा है। सिर्फ सतही अर्थी राजनीतिक यथार्थवाद को प्रस्तुत करना ही व्यंग्य मन जाता है। ऐसे कठिन दौर में परसाई को समझना किसी भी सजक व्यंग्यकार के लिए बहुत जरूरी गया है। बहुत से कारणों में यह भी एक कारण है जो परसाई के विचारों की प्रासंगिकता शिद्दत से महसूस हो रहा है। यह वर्तमान समय के प्रमुख कार्यभारों में से एक है, जिसको हम सबको मिलकर उठाना है।
व्यंग्य-साहित्य में परसाई को लेकर जितने भ्रम फैले हुए हैं, शायद ही किसी रचनाकार के साथ ऐसा हो। एक तरफ परसाई को किसी न किसी रूप में सब अपना बताते है तो दूसरी तरफ भाषाई चालाकी से एक ही झटके में उनको नकार भी दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ उनके रचना कर्म पर ही विभ्रम की स्थिति है बल्कि उनके द्वारा छेड़े गये वैचारिक संघर्षों, आलोचनात्मक दृष्टिकोण और उनकी पक्षधरता को लेकर ही विभ्रम की स्थिति है। उनके प्रयोग, व्यंग्य स्ट्रक्चर, भाषा और शैली को लेकर भी यदा-कदा मनोगत व्याख्या होने लगती है।
परसाई के बारे में सभी व्यंग्यकार इस बात पर तो सहमत है कि वो प्रतिबद्ध लेखन या वैचारिक दृष्टिकोण वाला लेखन करते है लेकिन दुर्भाग्यवश इन्हीं पक्षों की अधकचरी जानकारी के चलते उनको विकृत करने का भी काम साथ ही साथ किया जाता है। परसाई को जानने वाले जानते है है की उनकी प्रतिबद्धता किसी पार्टी के साथ नहीं बल्कि एक विचारधारा के साथ थी… जैसे ही उन्होंने देखा की तथाकथित पार्टी संगठन अपने विचारों पर नहीं चल रहे है, तो उन्होंने उसकी भी तीखी आलोचना अपने व्यंग्य द्वारा करी। इसी तीखी आलोचना के चलते वे हमेशा मुक्तिबोध की तरह अलगाव में भी रहे।
यह बात हमेशा याद रखे कि वैचारिक प्रतिबद्धता के बावजूद भी परसाई ने वैचारिक जड़ता को नहीं स्वीकारा। जहां भी उन्हें असंगति या जड़ता दिखाई दी उसका तीखा विरोध किया। उन्होंने तथाकथित मार्क्सवादियों की वास्तविकता का भी चित्रण किया- “सिगरेट को ऐसे क्रोध से मोड़कर बुझाता है जैसे बुर्जूआ का गला घोंट रहा हो। दिन में यह क्रांतिकारी मार्क्स, लेनिन, माओ के जुमले याद करता है। रात को दोस्तों के साथ शराब पीता है और क्रांतिकारी जुमले दुहराता है। फिर मुर्गा इस तरह खाता है जैसे पूंजीवाद को चीर रहा हो”।
मेरा कहने का मतलब सिर्फ इतना सा है की प्रतिबद्धता कोई ऐसी वास्तु नहीं है जिसकी व्याख्या आज संभव नहीं है। फिर क्यों इसे रहस्य के रूप में प्रस्तुत करके परसाई पर कीचड़ उछाला जाता है। परसाई के लेखन और उनसे जुड़े बहुत से सवालों के जवाब अभी तक अनुत्तरित है। न ही आज तक उन पर गंभीर चर्चा हुई है।
अधिकतर व्यंग्य लेखक उनको अपना आदर्श जरूर मानते लेकिन उनको हाशिये पर डालने के लिए उनका इस्तेमाल अपने-अपने तरीके से और अपनी सहूलियत के लिए करते है। कभी-कभी लोग जाने अनजाने में उनके विचारों को विकृत कर जाते हैं। उनके बारे में वैचारिक विभ्रम इतना गहरा है यदि इनको दूर नहीं किया गया तो, उनको समझने समझाने की जगह उनके मजबूत पक्ष को भोथरा करने की नाकाम कोशिश होती रहेगी।
कभी परसाई पर व्यक्तिगत आक्षेप लगाये जाते है कि उन्होंने शुरुआत में बहुत अच्छी रचनाएं लिखी लेकिन बाद में उनका क्षरण हो गया। कभी कहा जाता है कि मार्क्सवाद के संपर्क के बाद उनकी लेखनी में जान आ गयी और कभी कहा जाता है कि उन्होंने पार्टी लेखन किया। लेकिन कोई भी व्यक्ति उन रचनाओं को सामने नहीं लाता कि वे कौन-कौन सी ऐसी रचनाएं है, जिनको कमजोर कहा जा सकता है। क्यों कहा जाता है? कौन से मापदंडों पर रचनाएं कमजोर है। असल में यह सारा खेल उनको किसी न किसी रूप में नकारना ही है।
असल में कोई भी उनके लेखन पर सीधे-सीधे उंगली नहीं उठा सकता इसलिए वह अपनी तीन तिकड़म भाषा के बल पर उनको बदनाम कर देता है और किसी को कानोंकान खबर भी नहीं लगती। यही काम उनके लेखन काल से ही उनके विरोधी और उनके साथ जुड़े राजनीतिक वैचारिक लोग उसी प्रकार कर रहे थे जैसा आज भी बहुत ही चालाकी के साथ किया जाता है। जिन मुद्दों को लेकर उन्हें बदनाम किया जाता है, उनमें से कुछ का जिक्र मैं कर चुका हूँ बाकी का किसी अन्य लेख में करूंगा।
इस बात को हम अच्छी तरह से जानते है की परसाई अपने युगबोध को साथ लेकर चल रहे थे। जब हम परसाई का मूल्यांकन करेंगे तो हमें वामपंथ के वैचारिक विभ्रम पर बात करनी पड़ेगी, पार्टी संगठन और अपनी आलोचना और आत्मालोचना से भी गुजरना पड़ेगा। परसाई को समझने के लिए हमें नामवर, अशोक बाजपेयी, भीष्म साहनी, अवतार सिंह पास और मुक्तिबोध पर भी बात करनी पड़ेगी। परसाई का मूल्यांकन करने का मतलब है उस विचारधारा पर भी बात करना कि इस दुनिया की व्याख्या तो बहुत से लोगों ने अपने-अपने तरीके से की है, सवाल तो दुनिया को बदले और दुनिया को बेहतर बनाने से है। क्या हम आज इस स्थिति में है कि उन सवालों पर बात की जाये। यदि नहीं, तो परसाई का समग्र मूल्यांकन संभव नहीं है।
इसलिए मेरा स्पष्ट मत है कि परसाई पर बात करने का मतलब उनके समय का इतिहास और विचारधारा पर भी बात करना है। विचारधारात्मक और इतिहास-सम्बन्धी दृष्टि पर बात करना है और इससे बढ़कर आलोचना और आत्म आलोचना की राह से गुजरना है।
परसाई ने अपने लेखन में राजनीतिक रुख को मजबूत आधार प्रदान किया। प्रेमचंद की विरासत को उन्होंने विकसित किया। प्रेमचंद साहित्य द्वारा राजनीति को मशाल दिखाने वाली प्रेरणा मानते थे, वही परसाई ने अपने लेखन से साबित कर दिया कि राजनीति ही वो प्रेरक शक्ति है जो साहित्य को दिशा देती है। परसाई भारत में विश्वव्यापी दृष्टिकोण वाली परम्परा के ऐसे योद्धा है, जो मानते है कि राजनीति से अलग कोई भी लेखन नहीं होता। प्रत्येक लेखन अपनी राजनीतिक पक्षों को लेकर लिखा जाता है। यदि कोई यह कहे कि वह राजनीतिक लेखन नहीं करता तो वह लोगों को बेवकूफ बनाने के सिवा कुछ नहीं है। लेखन चाहे कैसा भी हो या तो शासक वर्ग के लिए होता है शोषित वर्ग के लिए होता। यही कारण है अधिकतर लेखक परसाई के इस वर्गीय दृष्टिकोण से दूर भागने की कोशिश करते है। उनको अपना मानते हुए भी नकारते है।
आज फिर से परसाई को देखने-पढ़ने और समझने का सवाल एक नज़रिये का सवाल है। कभी-कभी मुझे ऐसा महसूस होता है कि कुछ लोग परसाई को हमेशा के लिए हाशिये पर खड़ा रखना चाहते है। उनके जरूरी कार्यभारों को अनिश्चितकाल तक स्थगित कर देने की साजिश कर रहे है।
परसाई का मूल्यांकन एक विस्तृत आलोचना आत्मआलोचना की मांग करता है, जिन्हें हम कई कारणों से जरूरी समझते हैं, हालांकि हमने परसाई के समग्र दृष्टिकोण पर बात करने के लिए लोगों का आह्वान किया है। अब बस यही देखना बाकी है कि कौन-कौन इस मुहिम को जरूरी और गैर जरूरी मानता है।
आज परसाई को लेकर विचारधारात्मक संघर्ष चलाना परसाई की विरासत से नयी पीढ़ी शिक्षित करना हम सब का मकसद है, क्योंकि अपने समय की समस्त विसंगतियों और विरूपताओं को उन्होंने हर प्रकार के चौखटे से बाहर निकालकर गहराई से चित्रित किया है। उनकी विचारधारा ही उनकी पूरी रचना दृष्टि का निर्माण करती है। वह किसी भी जड़वादी विचार का समर्थन नहीं करते बल्कि उनकी विचारधारा ही कहीं न कहीं संवेदना का विस्तार करती है और उनकी रचनाओं को और अधिक मानवीय और मनुष्यता के करीब ले जाती है…. उनके बारे समग्रता से बात वही व्यक्ति कर सकता है जो परसाई को अपनी विरासत मानता हो और उसकी विरासत को जानता हो।
© एम.एम. चन्द्रा, दिल्ली
साभार: श्री जय प्रकाश पाण्डेय