हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ वर्तमान परिदृश्य में परसाई की प्रासंगिकता ☆ – सुश्री अलका अग्रवाल सिग्तिया
सुश्री अलका अग्रवाल सिग्तिया
(“परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति के पाठकों से साझा करने के लिए मुंबई की वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री अलका अग्रवाल सिग्तिया जी का हृदय से आभार।)
वर्तमान परिदृश्य में परसाई की प्रासंगिकता।
“जो अपने समय के प्रति ईमानदार नहीं वह अनन्त के प्रति कैसे ईमानदार हो सकता है।” परसाई अगर ऐसा लिखते हैं, तो उसके पीछे बहुत बड़ा मानवीय और सामाजिक सरोकार प्रतिबिम्बित होता है। वे ईमानदार रहे अपने लेखन अपनी प्रतिबद्धता को लेकर। हमेशा खड़े रहे परचम लेकर शोषितों के पक्ष में। व्यंग्य स्पिरिट की तरह ही मानकर लिखा, पर उनके व्यंग्य का फलक इतना विशाल है, कि वह एक विधा बन गया। विश्वगत, देशगत, सामाजिक, व्यक्तिगत कोई भी विद्रूप या विसंगति उनकी माइक्रोस्कोपी दृष्टि से छूट नहीं सके। स्थूल यथार्थ के पीछे छिपे कारणों का हमेशा उन्होंने विश्लेषण किया। उनके इसी विशेष यथार्थ बोध ने उन्हें व्यंग्य के शीर्ष पर स्थापित किया। परसाई के समूचे लेखन में राजनीतिक, आर्थिक सामाजिक, धार्मिक विसंगतियाँ जैसे दो मुँहापन, भाई-भतीजावाद, अवसरवाद, भ्रष्टाचार पर प्रहार है। कहीं मखमल की चादर में ढका हुआ, तो कहीं, वज्र की मार करने वाला, स्तुलस की धार सा। उन्हें पढ़कर पाठक वो नहीं रह पाता जो पढ़ने से पहले था, क्योंकि परसाई ने हमेशा बदलाव के लिए लिखा। इसलिए स्वतंत्रता के बाद जो मोहमंत्र की स्थिति बनी थी, अब तक रूप बदलकर बनी हुई है। “आजादी की घास”, “उखड़े खम्भें”, “अकाल-उत्सव'”जैसी अनकों रचनाऐं, आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी आज से बरसों पहले थीं।
आधुनिक पूंजीवादी युग में मध्यमवर्ग कुकुरमुत्ते की तरह उगा है। यह वर्ग परसाई के लेखन का प्रमुख विषय होने से इस वर्ग की विवशता, आडंबर ओढ़ा हुआ चरित्र, पद-लोलुपता कुछ भी तो उनकी पैनी दृष्टि से छिपा नहीं रह सका। परसाई ने पारिवारिक आर्थिक और जीवन के उन संदर्भों को रेखांकित किया है जो मध्यमवर्गीय नैतिकता के साथ ही मध्यमवर्गीय व्यामोह को तोड़ने में सहायक है। मध्यमवर्गीय त्रस्त मानवता उनके साहित्य में नए सदर्भों में प्रस्तुत हुई है “किसी भी तरह” में आस्था रखने वाले इस वर्ग और नौकरशाही की अपंगता को उन्होंने विस्तार के साथ चित्रित किया है। “असुविधाभोगी”, “सज्जन दुर्जन”, “काँग्रेसजन”, “बुद्धिवादी”, “दो नाक वाले लोग” आदि रचनाएं दोहरा जीवन जी रहे लोगों के चेहरे पर चढ़े नकाब को उतारती है। लेखक व नौकरशाह आज भी दोहरे मापदंड की जीवन शैली को अपनाते है। दृष्टव्य है – ‘साहित्यजीवी की आमदनी’ जब 1500 रुपए महीना हुई, तो उसने पहली बार एक लेख में लिखा – “इस देश के लेखक सुविधा भोगी हो गए हैं। वे अपने समाज की समस्याओं में कटे रहते हैं। आमदनी 4000 रुपए होने पर, कमेटी जीवी, पेपर जीवी, परीक्षा जीवी होने पर वह बार-बार यह बात दोहराने लगा।”
ऐसे लोग शासन को नाराज नहीं करते, छद्म क्रांतिकारिता की बात करते हैं। खुद शासन की सुविधाओं का लाभ उठाते हैं, पर दूसरे लेखकों पर इसी व्यवहार के लिए तानाकशी करते है। ये मध्यमवर्गीय लोग त्रिशंकु बन जाते हैं। उच्चवर्गीय चरित्र इन पर हावी होने लगता है। अपने आपको निम्मवर्ग का हितैषी भी बताते हैं। “बुद्धिवादी” ऐसा ही चरित्र है – “35 डिग्री सर घुमाकर सोफे पर कोहनी टिकाकर हथेली पर ढुड्डी साधकर वे जब भर नजर हमें देखते हैं तो हम उनके बौद्धिक आतंक से डूब जाते हैं।”
कोहेन बैंडी और प्रोफेसर मार्क्यूज के स्टूडेण्ट पावर बात करते हुए वह युवा वर्ग को स्वतंत्रता देने की बात करता है, पर खुद की बेटी के अन्तर्जातीय विवाह को मान्यता देने को कतई तैयार नहीं। प्रकट तौर पर धर्म-निरपेक्षता और राष्ट्रीय एकता की बात करता है, पर जातीय भेदभाव और सांप्रदायिकता की बातें भी करता है, गोरक्षा आंदोलन की आग भी फैलाता है। आज भी शत-प्रतिशत यही स्थितियाँ परिस्थितियाँ है। ऐसे में परसाई बहुत ही प्रासंगिक है।
वर्तमान परिदृष्य में चारों ओर अराजकता फैली हैं। पूंजीवाद, साम्राज्यवाद पूरे विश्व को अपनी गिरफ्त में ले चुके हैं। और ऐसा नहीं है कि व्यक्ति पर देश-विदेश की परिस्थिति का प्रभाव नहीं पड़ता। आज वर्तमान में पूरा विश्व एक गांव बन चुका है। मुक्ति बोध में बहुत सटीक निरीक्षण करके लिखा – “परसाई जी का लेखन दुनिया की मौजूदा समकालीन जटिलता में एक साहसिक सफर, एक हरावल दस्ता और एक कुतुबनुमा की शक्ल एक साथ अख़्तियार कर लेता है। वह ऐसा रचनात्मक साहित्य है जिसे ज्ञानात्मक साहित्य की तरह सही और गलत की कसौटी पर भी परखा जा सकता है। और जो ईमानदारी और प्रामाणिकता की अन्तर्किया की आधुनिक अवधारणा पर भी खरा उतरता है।”
अमेरीका पूरे विश्व पर हमेशा से शासन करना चाहता है। तेल पर अपना कब्जा करने के लिए गल्फ देशों का विनाश, अब सीरिया में दादागिरी कर रहा है। सब बर्दाश्त भी करते हैं। क्यों?…परसाई लिखते हैं – “अमेरीकी शासक हमले को सभ्यता का प्रसार कहते हैं। बम बरसते हैं, तो मरने वाले सोचते हैं सभ्यता बरस रही हैं।” वही परिदृश्य आज भी है। परसाई का लेखन स्वतंत्रता के बाद के भारत का ऐसा विश्वसनीय ऐतिहासिक दस्तावेज है, जिसमें राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश उनसे जुड़े व्यक्ति और उनमें पनपता भ्रष्टाचार दूरदर्शी दृष्टि के आलोक में उजागर हुए हैं। अमानवीय अर्थविश्व या पूंजीवाद के अंतर्राष्ट्रीय दुष्टचक्रों, प्रभावों और इस व्यवस्था के वर्ग स्वार्थों को व्यापक तौर पर पहचानकर इस तरह शब्दों में निबद्ध किया है, कि वो अपनी सार्थकता के साथ वर्तमान परिदृश्य में आज भी उतने ही सामायिक हैं। उनके स्तंभ `कबिरा खड़ा बाजार में’ तत्कालीन वैश्विक परिदृश्य पर भी कटाक्ष हैं। “राष्ट्रपति निक्सन से भेंट” में परसाई के भीतर बैठा कबीर लिखता है – “अमेरिका में योगी, साधु, सन्त, फकीर की बड़ी पूछ है। अमेरिकी बड़ा विचित्र आदमी होता है। वह भीतरी व्यक्तिगत शांति तो चाहता है, पर बाहर सरकार को अशांति फैलाने देता है।” कबीर अमेरिकी गुप्तचर विभाग के आदमी से कहता है – “दुनिया भर में तुम्हारी जासूसी का जाल फैला है।” कबीर ने निक्सन से पूछा – “एशिया में आपका क्या स्वार्थ है?”
निक्सन ने कहा – “बिग पावर का यह कर्तव्य है कि वह कहीं शांति ना रहने दे। सब डर के साये में जिंदा रहें। इसीलिए कहीं हमारा सातवां बेड़ा है, कहीं हमारा छठवां बेड़ा है। शांति ही रही तो हमें महाशक्ति कौन मानेगा? फिर इतना पैसा, इतना हथियार, इनका भी तो कुछ करना पड़ेगा। हर महाद्वीप में हमारे चमचे देश हैं, उन्हें दिखाने के लिए, कुछ तो करते रहना चाहिए। कुछ सरफिरे लोग यानी कम्यूनिस्ट इसे `अमेरिकी साम्राज्यवाद’ कहते हैं – पर सही अर्थ में यह `अमेरिकी मजबूरी हैं।” आज भी अमेरिका मजबूर हो दूसरों के फटे तो फटे, जुड़े हुए में भी टांग अड़ाने को।
राजनीति, समाज, शिक्षा, मेडिकल देश ही नहीं विदेश भी सबकुछ चित्रित है, उनके रचना संसार में। मेडिकल क्षेत्र में व्याप्त धांधली बहोत आम हो गयी है। इलाज इतना महँगा हो गया है कि आम आदमी प्राइवेट अस्पताल में भरती होने की औकात नहीं रहता। सरकारी अस्पताल में सुविधाएं नहीं हैं। अभी हाल ही में मुंबई के एक अस्पताल में मरीज को आंखों पर चूहे ने काट लिया। निजी अस्पताल में उसके इलाज पर 10 लाख खर्च हो चुके थे, और पैसे नहीं थे तब सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया। कोमा के उस मरीज को चूहे ने काट लिया उसकी मौत हो गई। एक अस्पताल में एक युवक जो अपनी किसी रिश्तेदार का एम.आर.आई. कराने अस्पताल गया था। वहाँ किसी ने नहीं बताया कि ऑक्सीजन-सिलेंडर के साथ अंदर नहीं जाना। मशीन भी संभवत: कुछ खराब थी। बीमार रिश्तेदार को मशीन ने अंदर खींचा तो यह युवक उन्हें बचाने के लिए दौड़ा, हुआ यह मशीन ने उसे अंदर खींच लिया, जहा दम घुटने से उसकी मौत हो गई। डॉक्टरों ने मेडिकल को भी एक व्यापार बना लिया है।
कई बार मृत आदमी को भी वैंटिलेटर पर रखकर अस्पताल पैसे बनाते हैं। परसाई का कबीर जब डॉक्टरों से भेंट करता है मेडिकल क्षेत्र में व्याप्त धांधलियों को अनावृत करता है। कबीर गरीब रामदास के इलाज का इंतजाम कराना चाहता है। कनछेदी उसे कहता है – “अरे रोग से आदमी बच जाता है, पर डॉक्टरों से नहीं बचता। – पिछले साल मेरे चचेरे भाई बीमार पड़े, डॉक्टर को बुलाया, भाई मर चुके थे पर डॉक्टर उस मुर्दे को ही एक इंजेक्शन दे दिया और 35 रुपए ले लिए रामदास पेड़ के नीचे पड़ा है डॉक्टर उसे एडमिट नहीं कर रहे, यह कहककर कि बैड खाली नहीं है। कबीर के यह कहने पर बैड खाली है डॉक्टर कहता है, “उसे जिस बैड पर डालो वही उछालकर फेंक देता है” अभी शत-प्रतिशत यही हालात है। जिनका भी वास्ता आज अस्पतालों या डॉक्टरों से पड़ता है, उनमे से ज्यादातर लोगों अनुभव अच्छा नहीं है।
ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहां परसाई की पड़ताली दृष्टि नहीं पड़ी। उनकी कलम हर परिस्थिति का सूक्ष्म भेदन कर गहरे पैठ कर, करती है। `वॉक आउट, स्लीप आउट ईट आउट’ संसद में सांसदों के बर्ताव पर जो व्यंग्य सालों-पहले लिखा गया था, आज भी उतना ही सटीक है। उनकी कितनी रचनाएँ ऐसी हैं, जो आज के परिदृष्य को वर्षों पहले रेखांकित कर चुकी हैं। सर्वे और सुंदरी में उन्होंने लिखा – “जब से खबर पढ़ी है कि सर्वे ऑफ इंडिया के किसी दफ्तर में दो पाकिस्तानी सुंदरियाँ एक अफसर के साथ रात भर रही और सुबह नक्शे लेकर फरार हो गईं। तब से मन डाँवाडोल है। मैंने आज तक नहीं सोचा था इस भद्दे अभागे दफ्तर में इतनी कोमल सम्भावनाएँ छिपी हैं कि इसमें इतने दूर पाकिस्तान से आकर सुन्दरी रात बिताती है। यह दफ्तर बड़ा प्यारा लगने लगा है।” वर्षों पहले परसाईजीने हनी ट्रैप पर अपनी कलम चलाई थीं और इधर इसी साल समाचारपत्र और मीडिया कई नए हनी ट्रैप का खुलासा कर रहे हैं। 15 फरवरी 2018 के समाचार पत्र में समाचार छपा था एक अौर हनी ट्रैप, जबलपुर के एक लेफ्टिनेंट कर्नल को पकड़ा गया। पाकिस्तान की सुंदरियों का निशाना बने थे। सर्वे और सुंदरी में साहब कहता है, “पाकिस्तान से हमारे रिश्ते इतने अच्छे हो गए कि टैंकों के बदले सुन्दरी भेजता है।” सर्वे साहब सुंदरियों को आमंत्रित करता है लड़ाई के वक्त काम आनेवाले नक्शे देखकर वे पूछती हैं – साहब हम ले लें?” “साहब कहते हैं – जितने चाहे ले लीजिए। आप चाहें तो पूरा देश ही उठा कर दे सकता हूँ।….” रात गुजाकर सवेरे सुंदरियाँ नक्शे लेकर चलीं। साहब ने कहा, “आज और रुके जातीं तो मैं कुछ नक्शे और दे देता।”
परसाई आगे व्यंग्य की धार और तीव्र करते हैं, संसद में कितना शोर हुआ। इतनी दूर से सुन्दर स्त्री आशा लगाकर आए, और हमारा अफसर इतना हृदयहीन हो जाए, कि दो चार नक्शे भी न दें। इस रचना के अंत में परसाई लिखते हैं – हर हिन्दू देशभक्त है, – सुन्दरी के आने तक।” चीन, पाकिस्तान, अन्य देश अब भी आदम की इस कमजोरी को समझते है हौवा को भेजकर गुप्त सूचना निकलवाते हैं।
कहां बदला परसाई का देश इतने सालों में भी। यदि बदला होता, तो पुल बनते हुए या बनने के बाद धाराशायी न होते। भ्रष्टाचारी ठेकेदार, कितने कमजोर पुल बनाते हैं। बनारस में चैकाघाट-लहरपारा फ्लायओवर कि दो बीमें गिरी, कई लोग मर गये। कलकत्ता में पुल गिर गया ऐसी घटनाओं को देखकर परसाई की रचना “पहला पुल” अनायास ही ज़हन में कौंध गई। लोककर्म विभाग के बाबू रामसेवक ने हनुमान जी की आज्ञा से नौकरी छोड़कर नए संदर्भों में राम कथा अपने ऑफिस से लाए खाली मेमो फॉर्म्स् पर लिखनी आरंभ की। सेतुबंध की कथा कुछ यूं लिखी। जिस पुल पर से राम लंका गए थे, वह दूसरा पुल था, पहला पुल उससे पहले बन चुका था।
“जब पुल तैयार हो गया, तब नल-नील रामचंद्र के पास आए, साष्टांग दण्डवत करके बोले प्रभु पुल बनकर तैयार हो गया है।” राम ने उनकी और आश्चर्य से देखा और कहा – क्या कहते हो? पुल बन गया?…अभी तो मैंने उसका शिलान्यास किया है। जिसका शिलान्यास हो, वह इतनी जल्दी नहीं बनता, बल्कि बनता ही नहीं है। जिन्हें बनना होता है, उनका शिलान्यास नहीं होता।” राम ने सुग्रीव से कहा, “बन्धु पुल बन गया है कल ही सेना को उस पर चलने का आदेश दो। सुग्रीव ने चौंककर कहा, प्रभु कैसी अनहोनी बात करते हैं, अभी पुल का उद्घाटन तो हुआ नहीं है।” राम ने कहा, “एक दिन की देर से भी सीता का अहित हो सकता है। उद्घाटन वाली प्रथा पालना आवश्यक नहीं।”
“सुग्रीव तो आसमान से गिरते-गिरते ही बचा। उसने कहा महाराज कितने पुल वर्षों से बने पड़े हैं, पर उन पर कोई नहीं चलता क्योंकि उनका उद्घाटन नहीं हो सका है। महाराज पुल पार उतरने के लिए नहीं बल्कि उद्घाटन के लिए बनाए जाते हैं। पार उतरने के लिए उनका उपयोग हो जाता है, प्रासंगिक बात है।” राजा जनक को उद्घाटन के लिए सुग्रीव के खर्च पर बुलाया गया, उनके आने में जितना खर्च हुआ, उसमें दो पुल और बन सकते थे। राजा जनक ने अपने भाषण में कहा राम ने मुझे बुलाकर उचित ही किया, वे आखिर मेरे दामाद है, वे और किसे बुलाते।
वही राष्ट्र प्रगति कर सका, जिसके पास काफी पुल थे इसलिए हमारे देश को भी पुलों से पाट दो। “भूमि पर, नदियों पर, सागरों, महासागरों पर पुल बनें। हवा में भी पुल बने, जैसे हवा महल बनते हैं।” भाषण देकर जैसे ही जनक अपने आसन पर बैठें, पुल भरभराकर गिर गया। अंत में परसाई जब लिखते हैं – “उस पुल के संबंध में जो जांच-कमीशन बैठाया था, उसकी रिपोर्ट कलियुग के इस चौथे चरण तक तैयार नहीं हुई।” कौन-सा पाठक आज के संदर्भ में इस रचना को नहीं पढ़ेगा?
परसाई की रचनाएँ वर्तमान में भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, क्योंकि वे युग साक्षी थे। वे जानते थे कि पूंजीवादी व्यवस्था में तो व्यंग्य के मुद्दे हैं ही, अपितु समाजवादी व्यवस्था में भी व्यक्ति व समाज दोनों में विसंगतियाँ रहेंगी। ज्ञानरंजन जी को दिये साक्षात्कार में भी वे कहते हैं – “योजना आयोग न्यायपालिक, शिक्षा पद्धति आदि खामियाँ पूंजीवादी तंत्र की हैं, समाजवाद की नहीं इसलिए 33 वर्ष बाद भी कुछ परिवर्तन नहीं हुआ।” साक्षात्कार को वर्षों बीत गए अब भी स्थितियाँ जस की तस है, बल्कि, और बदत्तर हुई हैं। इसलिए आज भी उनका लेखन, पग-पग पर याद आता है।
अनेकों मुद्दे हैं जो परसाई की कलम से निकले और वर्तमान परिदृश्य पर आज भी उतने ही फिट है उदाहरण के तौर पर तथाकथित बाबा और माताऐं जनता को अब भी मूर्ख बना रहे हैं तब भी बना रहे थे जब परसाई थे। “टॉर्च बेचने वाले”, “सत्यसाधक मंडल” जैसी अनेक रचनाऐं उन्होंने इसी विसंगति पर लिखीं है। राजनीति धर्म को किस तरह से मोहरा बनाती है, परसाई ने हमें बहोत अच्छी तरह से समझाया हैं और इसीलिए परसाई की रचना कि परिस्थितियों हम आज भी उतना ही “रिलेट” कर पाते हैं। उनकी रचनाओं की प्रासंगिकता के कारण ही पाठकों में सही वैज्ञानिक चेतना का विकास होता है। तभी तो उनके लेखन से तब भी कट्टरपंथी भयाकांत थे, अब भी है और भविष्य में भी होंगे। “मेरी कैफियत” में उन्होंने लिखा भी है – “मैं लेखक छोटा मगर संकट बड़ा हूँ।…मैं संकट उनके लिए भी हूँ, जो राजनैतिक, धार्मिक, साम्प्रदायिक, सामाजिक, व्यावसायिक या किन्हीं दूसरे रूपों में मानव विरोधी हरकतें करते हैं।” इन मानव विरोधी हरकतों के खिलाफ परसाई का लेखन हमेशा विरोध दर्ज करता रहेगा।
परसाई की कलम ने आजादी के बाद के मोहभंग, शासक वर्ग के नैतिक पतन, दोगलेपन, भ्रष्टाचार, पाखण्ड, झूठे आचारण, छल, कपट, स्वार्थपरता, सिद्धांतविहीन विचारधारा और गठबंधन सत्ता हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जाना, सत्ता का उन्माद और इन सब में आम आदमी का पग-पग पर ठगा जाना सबको अपना विषय बनाया। इसीलिए उनका लेखन आज भी उतना ही मारक है क्योंकि सरेआम यही तो हो रहा है।
उनकी अनेक रचनाएं इन सब पर वर्तमान में भी आघात करती हैं। व्यक्ति तथा समाज के भीतर के अंतर्विरोध को अनावृत्त करती है। क्योंकि वे कबीर को अपना गुरू मानते थे और कबीर की तरह व्यक्ति और समाज की बेहतरी चाहते थे। इस समाज के बेहतरी के लिए कट्टरपंथी ताकतों से उन्होंने मार भी खाईं लोगों का विरोध भी सहा लेकिन अपना घर फूँक कर अपने समय के साथ आगे के समय को भी लिखते रहे।
सुखिया सब संसार है खावै और सोवै
दुखिया दास कबीर है, जागे और रौवै।
वे लिखते है, कि व्यक्ति और समाज आत्मसाक्षात्कार और आत्मालोचन करे, कमजोरियाँ, बुराइयाँ, विसंगतियाँ त्यागकर, जैसा वह है, उससे बेहतर बने। वर्तमान में कितने लोग हिन्दी की दुकान खोलकर बैठ गए हैं। एक दो उदाहरण मैंने ऐसे देखे हैं जिन्होंने हिन्दी साहित्य का कखग भी नहीं पढ़ा। हिन्दी को माँ का दर्जा दिलाने में लगे हैं। उसके लिए अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सहायता ले रहे हैं। अपने घर भर रहे हैं। पर उनके बच्चे अंग्रेजी माध्यम में पढ़ते हैं। परसाई कि एक रचना में भी हम ऐसा ही देखते हैं।
परसाई भी लिखते है – “मैंने देखा कि हिन्दी से रोटी और यश कमाने वाला पिता बाहर हिन्दी के लिए हाय-हाय करता है।…और हिन्दी से अनभिज्ञ, भारतीयता से शून्य अपने बच्चों को देखकर गर्व से कहता है, हमारे बच्चे गंवारों की तरह हिन्दी नहीं सीखते”
वर्तमान में परसाई की प्रासंगिकता और अधिक है, इस पर कोई दो मत हो ही नहीं सकते। बाजार में कबीर की तरह खड़े होकर, गुहार लगाकर जब आधुनिक युग के कबीर कहते हैं, सुनो भाई साधो और अरस्तु उनके साथ पड़ताल करते हैं, साधारण जन के पारिवारिक और सामाजिक परिवेश के साथ संपूर्ण राष्ट्रीय परिदृश्य व अन्तर्राष्ट्रीय विश्वसंदर्भ की तब समूची विसंगतियाँ त्राहि-त्राहि कर उठती हैं। परसाई का लेखन ऐसा ही, जो अनंत काल तक प्रासंगिक रहेगा। अंत परसाई की वर्तमान में प्रासंगिकता को नमन करते हुए बाबा नागार्जुन की दो पंक्तियों के साथ –
छूटने लगे अविरल गति से
जब परसाई के व्यंग्य बाण
सरपट भागे धर्म ध्वजी,
दुष्टों के कंपित हुए प्राण।
© अलका अग्रवाल सिग्तिया, मुंबई
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