डॉ कुन्दन सिंह परिहार
(“परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति के पाठकों से साझा करने के लिए संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का हृदय से आभार।)
सोचता हूँ, सुखी रहे वे जो परसाई के ज़्यादा नज़दीक नहीं आये। अपनी अपनी दुनिया में मगन रहे। शीशा सामने रखकर अपने पर रीझते रहे। कुछ ऐसे लोग भी रहे जो परसाई के दर्शन को जीवन का एक ज़रूरी काम समझकर उनसे मिले और उन्हें ज़्यादा पढ़े-गुने बिना गदगद भाव से चले गये। लेकिन जिसने सचमुच परसाई को पढ़ा-गुना वह निश्चय ही पहले जैसा नहीं रह गया होगा। परसाई उम्र भर अपनी शर्तों पर जिये, मुफ़लिसी को उन्होंने जानबूझकर गले लगाया, अपने शहर के लगभग सभी नामचीन लोगों के सामने दर्पण रखकर उन्हें अपना शत्रु बनाया, विचारधारा और आस्था के मामले में कभी कोई समझौता नहीं किया। दुख और परेशानी से स्थायी दोस्ती होने के बावजूद उन्होंने मेरी जानकारी में कोई कंधा नहीं तलाशा। भीतर से उन पर जो भी गुज़री हो, ऊपर से शायद ही किसी ने उन्हें दुखी या परेशान देखा हो, सिवा उन दिनों के जब वे असामान्य हो गये थे। ‘गर्दिश के दिन’ में उन्होंने ‘छाती कड़ी कर लेने’ की बात कही थी। उसे उन्होंने अन्त तक निभाया।
ऐसे व्यक्ति से ज़्यादा रब्त-ज़ब्त रखना मुसीबत बुलाना ही हो सकता है। मुझे विश्वास है जिसने परसाई के जीवन को ठीक से पढ़ा होगा वह जीवन में क्षुद्रता, स्वार्थपरता, कायरता, चाटुकारिता, अन्याय और शोषण के काबिल नहीं रहा होगा। मुश्किल यह है कि ये सभी आज सिद्धि की सीढ़ियाँ मानी जाती हैं। इसलिए परसाई को जानना सरल राजमार्ग को छोड़कर मुश्किलों वाले रास्ते को अपनाना है। मुझे विश्वास है कि यही संकट उनके सामने आया होगा जिन्होंने सतत जागने और रोने वाले कबीर के नज़दीक आने की कोशिश की होगी।
मुझे याद है मेरी एक कहानी, लेखन के शुरुआती दिनों में एक प्रतिष्ठित पत्रिका में छपी थी। मैं काफी खुश था। कहानी का मुख्य पात्र एक सामन्त था जो बुरे दिनों से गुज़र रहा था, लेकिन अपनी ग़ुरबत के बावजूद उसने वे कीमती ग़लीचे वापस लेने से इनकार कर दिया जो गाँव की एक लड़की की शादी में माँग कर ले जाए गये थे। सामन्त का तर्क सिर्फ यह था कि लड़की की शादी के लिए दी गयी चीज़ वापस नहीं ली जा सकती थी। कहानी सच्ची घटना पर आधारित और खूब भावुकता पूर्ण थी। लोगों ने पढ़ा और और भरपूर प्रशंसा की। कहानी की भावुकता पाठकों को बहा ले गयी। परसाई जी से मिला। वे उस कहानी को पढ़ चुके थे। अपने से छोटों के प्रति उनका भाव स्नेह का रहता था, बशर्ते कि व्यक्ति उन ‘गुणों’ से मुक्त हो जिनसे उन्हें ‘एलर्जी’ थी। उन्होंने सहज भाव से एक दो वाक्यों में कहानी की कमज़ोरी बता दी। बात मेरी समझ में आ गयी। मेरा दृष्टिकोण सन्तुलित नहीं था। नतीजा यह हुआ कि वह कहानी मेरे किसी संग्रह में नहीं आ सकी। परसाई के निकट आने के ऐसे ही दुष्परिणाम होते थे। आज मेरे कई मित्र परेशान हैं कि वह कहानी कहाँ गुम हो गयी।
परनिन्दा में परसाई की कभी रुचि नहीं रही। एक बार मैंने अपने एक मित्र के बारे में, जो उनके भी निकट थे, उनसे शिकायत की कि वे अपनी अच्छी-खासी प्रतिभा का सही उपयोग नहीं कर रहे हैं और अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं। परसाई जी ने तुरन्त मुझसे प्रश्न किया कि मैं कैसे कह सकता हूँ कि मेरे वे मित्र अपना जीवन नष्ट कर रहे थे। मैं अपनी भूल समझ गया। सही जीवन का पैमाना क्या है? क्या सामान्य-स्वीकृति प्राप्त जीवन ही सही जीवन है? मैं अपनी नासमझी के एहसास के साथ मौन हो गया।
अपने आत्मसम्मान के प्रति परसाई जी बहुत संवेदनशील थे। एक बार महाराष्ट्र के एक व्यंग्यकार उनसे मिलने आये थे। उनका स्वास्थ्य देखकर उन्होंने लौटकर एक साप्ताहिक पत्रिका में पत्र प्रकाशित करवाया कि परसाई जी का स्वास्थ्य बहुत खराब है, शासन को उन्हें इमदाद देना चाहिए। परसाई जी ने तुरन्त उसी पत्रिका को पत्र दिया कि वे अपनी देखभाल करने में समर्थ हैं और उन्हें किसी प्रकार की सहायता की ज़रूरत नहीं है।
पैर खराब न होता तो शायद परसाई जी सामाजिक जीवन में ज़्यादा हस्तक्षेप कर सकते, उनका जीवन एक ‘एक्टिविस्ट’ का होता, क्योंकि खाने और सोने वाला जीवन उनका हो नहीं सकता था। अपनी असमर्थता के बावजूद अपनी सक्रियता और प्रासंगिकता को बनाये रखना उनके ही बूते का काम था
परसाई अपने पीछे जीवन और लेखन के बड़े मानदंड छोड़ गये, जिनके सामने व्यक्ति और लेखक बौना हो जाता है। सुखी और संतुष्ट जीवन के लिए ज़रूरी है कि परसाई के जीवन पर ज़्यादा देर तक नज़र न टिकायी जाये।
© डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )
(‘वसुधा’ के जून 1998 के अंक से)