डॉ प्रेरणा उबाळे
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार वसंत आबाजी डहाके जी के 1996 में प्रकाशित मराठी काव्य संग्रह ‘शुन:शेप’ का सद्य प्रकाशित एवं लोकार्पित काव्य संग्रह ‘शुन:शेप’ का हिन्दी भावानुवाद डॉ प्रेरणा उबाळे जी द्वारा किया गया है। इस भावानुवाद को साहित्य जगत में भरपूर स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त हो रहा है। आज प्रस्तुत है ‘शुन:शेप’ डॉ प्रेरणा उबाळे जी का आत्मकथ्य।)
☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘शुन:शेप’ – श्री वसंत आबाजी डहाके ☆ भावानुवाद – डॉ प्रेरणा उबाळे ☆
कविता : एक व्यास – ‘शुन:शेप’ के अनुवाद संदर्भ में – डॉ प्रेरणा उबाळे
विगत पचास वर्षों से मराठी साहित्य जगत संपूर्णत: ‘डहाकेमय’ दिखाई देता है l मराठी कविता, आलोचना, संपादन, आदि साहित्य क्षेत्रों में सहज विचरण करते हुए वसंत आबाजी डहाके जी ने अपना बेजोड़ स्थान बनाया है l जनप्रिय साहित्यकार, भाषाविद, कोशकार, साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित वसंत आबाजी डहाके जी की कविताओं का अनुवाद करने का सुअवसर मुझे ‘शुन:शेप’ कविता-संग्रह के माध्यम से मिला।
वस्तुत: उनके जन्मदिन पर अर्थात 30 मार्च 2020 को मैंने उनकी कुछ मराठी कविताओं का हिंदी अनुवाद कर उन्हें भेंट स्वरुप प्रदान किया था l उस समय उन्होंने अपनी कुछ अन्य कविताएँ भी भेजी और मैंने जब उनका अनुवाद किया तब पहली कविताओं के अनुवाद के समान ये भी अनुवाद उन्हें पसंद आया l संयोग से ही मनोज पाठक, वर्णमुद्रा पब्लिशर्स, महाराष्ट्र की ओर से वसंत आबाजी डहाके जी के ‘शुन:शेप’ कवितासंग्रह के अनुवाद का प्रस्ताव आया और मैंने तुरंत उसे स्वीकार किया।
वसंत आबाजी डहाके जी की कविताओं को पढ़ने के बाद उनका भाव मन-मस्तिष्क में गूंजता रहता है। वस्तुत: ‘शुन:शेप’ मराठी कविता-संग्रह का प्रकाशन सन 1996 में हुआ है लेकिन कविताएँ पढ़ने पर मैंने यह अत्यंत तीव्रता से अनुभव किया कि सभी कविताएँ वर्तमान समय की परिस्थितियां, जीवन की समस्याएँ, विचार, भावनाएँ, मन की कोमलताएं, अनुभवों आदि को अभिव्यक्त करती हैं। आसपास की सामाजिक परिस्थितियाँ, उनका मनुष्य के मन- मस्तिष्क पर होनेवाला परिणाम, विचारों का जबरदस्त संघर्ष और द्वंद्वात्मकता को उद्घाटित करनेवाला यह कवितासंग्रह है। उदाहरण के लिए, ‘काला राजकुमार’ कविता की ये पंक्तियाँ-
“काले राजकुमार, तुम्हें सुकून नहीं है …शांति नहीं है
जख्मी कौवे के समान चोंच में ही तुम कराहना
मात्र
अश्र
उग्र
काला स्याह रंग”
‘शुन:शेप’ की कविताओं का अनुवाद करते समय डहाके जी की दार्शनिकता, चिंतनपरकता, काव्य-संवेदना, शैली को मैंने समझने का पूरा प्रयत्न किया है। मनुष्य में एक सहज प्रवृत्ति निहित होती है – मानवीय लोभ, बेईमानी, असत्य तथा नकारात्मक प्रवृत्तियों को दूर करते हुए नर से नारायण बनने की। दूसरे शब्दों में, मनुष्य स्वाभाविक रूप में बुराइयों पर जीत, बर्बरता से ऊपर उठना चाहता है। डहाके जी की ये कविताएँ इसी सकारात्मकता के रास्ते की खोज करने के लिए हमें नई दृष्टि प्रदान करती है। अनुवाद में भी इस सोच को लाना मेरे लिए महत्वपूर्ण रहा। जैसे –
“मैं प्रार्थना करता हूँ आकाश से गिर पड़नेवाली मुसलियों के लिए
घर-घर में छिपा भय
रास्तों के अकस्मात धोखे,
निगल लेनेवाले संदेह की गुफाएँ
मैं प्रार्थना करता हूँ सहनशीलता के निर्माण के लिए
शांति से रह पाए इसलिए ….”
कवि, आलोचक वसंत आबाजी डहाके जी के व्यक्तित्व में समाज के प्रति सहानुभूति और उसके साथ तादात्म्य, प्रबुद्धता, न्यायपरकता का अद्भुत संगम हुआ है जो उनकी काव्यात्मकता को अधिक प्रखर और धारदार बना देता है और कविताओं में प्रस्तुत सामाजिक विश्लेषण अधिक गहन, विशिष्ट अनुभवजन्य, व्यापक और सत्य तक ले जानेवाला सिद्ध होता है। परिवर्तन की अटूट आकांक्षा भी इस संग्रह की अनेक कविताओं में रेखांकित होती है। ‘चरैवेति चरैवेति’ के संदेश को प्रवाहित करनेवाली ये कविताएँ विभिन्न वर्तमान संदर्भों के साथ प्रस्तुत हुई हैं।
सत्ता, मौकापरस्ती, तानाशाही, सत्ताधारी पक्षों के द्वारा लिए गए निर्णय आदि के प्रति व्यंग्य रूप में क्षोभ अभिव्यक्त हुआ है, वह सटीक रूप में अनूदित करने की मेरी कोशिश रही है। राजनीतिक आशय की कविताओं में सच को टटोलने का प्रयास कवि ने किया है अत: अनुवादक के रूप में उतनी ही समतुल्यता लाना मेरी प्रतिबद्धता बन गई। जैसे – ‘कौए’ कविता। यह कविता विभिन्न कोणों से राजनीतिक निर्णय और उनसे निर्मित स्थितियों को प्रतीकात्मक रूप में अंकित करती है। इसके अनुवाद की कुछ पंक्तियाँ –
“लोग बोलते रहते हैं अविरत और एक भी शब्द अपना नहीं होता
गुलाम भूमि के लोग बोलते समय भी हमेशा दुविधा में रहते हैं। ….
……..
हम सबको इस कालकोठरी जैसी इमारत के अहाते में
क्यों बिठा लिया है उसे मालूम नहीं।
इस संग्रह में कुछ कविताएँ प्रेम तथा मनुष्य की कोमलताओं से संबंधित भी हैं। इन कविताओं के अनुवाद में उन कोमलताओं को उद्घाटित करने का प्रयास मैंने किया है। शब्दों के चयन में कुछ सतर्कता बरतते हुए अर्थ के निकट पहुँचने की भी मेरी कोशिश रही है।
अनुवाद पुन:सृजन की प्रक्रिया है और ‘शुन:शेप’ का अनुवाद करना मेरे लिए नवनिर्माण का आनंद प्रदान करनेवाला रहा, मानो लेखन का एक उत्सव।
मानवीय संवेदना, एहसासों को अभिव्यक्त करनेवाला विशाल परिधियुक्त यह संग्रह हिंदी और मराठी के पाठकों को निश्चय ही आकर्षित करेगा। ‘शुन:शेप’ के अनुवाद से पाठकों को निश्चय ही यह अनुभव होगा कि मूल कविता हो अथवा कविता का अनुवाद; उसका समय और व्यास कभी समाप्त नहीं होता; सच्चाई की प्रखरता और सगुणता उसे कालातीत बना देती है।
© डॉ प्रेरणा उबाळे
अनुवादक, पुणे
संपर्क – 7028525378 / [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈