श्री प्रियदर्शी खैरा
☆ पुस्तक चर्चा ☆ “सूर्यांश का प्रयाण”… – श्री महेश श्रीवास्तव ☆ श्री प्रियदर्शी खैरा ☆
पुस्तक – सूर्यांश का प्रयाण
रचनाकार – श्री महेश श्रीवास्तव
प्रकाशक – इंदिरा पब्लिशिंग हाउस, भोपाल
मूल्य – ₹165
☆ गागर में सागर – सूर्यांश का प्रयाण ☆ श्री प्रियदर्शी खैरा ☆
पत्रकारिता के पुरोधा, मध्य प्रदेश गान के रचयिता श्री महेश श्रीवास्तव के नव प्रकाशित प्रबंध काव्य “सूर्यांश का प्रयाण” को आत्मसात करने के लिए आपको उसी भाव भूमि पर उतरना होगा, जिसमें खोकर कवि ने सृजन किया है। साहित्यकारों एवं कलाकारों को कर्ण का चरित्र सदा से ही आकर्षित करता रहा है। किंतु,कवि ने उसे यहां नई दृष्टि से देखा है। मृत्यु शैया पर लेटे कर्ण के मस्तिष्क में उठ रहे विचारों को व्यक्त करना अपने आप में विलक्षण कार्य है। शास्त्रों में कहा गया है कि मृत्यु के समय बीता हुआ जीवन चलचित्र की भांति समक्ष में दिखाई देने लगता है। इस स्तर पर रचना करने के लिए आपका विशद अध्ययन एवं अनुभव आवश्यक है और उसे काव्य में अभिव्यक्त करना और भी दुश्कर कार्य है। इस प्रबंध काव्य में कवि का अध्ययन,अनुभव, चिंतन,मनन एवं विषय पर पकड़ स्पष्ट झलकती है।
कवि ने “सूर्यांश का प्रयाण” को पांच खंडो में विभाजित किया है, यथा कुंती, द्रोपदी, युद्ध, दान और विदा, संक्षेप में कहें तो जन्म से मृत्यु।
कुंती ने जन्म दिया, द्रोपदी,युद्ध और दान के बीच जिया और अंत में कवि ने उसके जीवन को चार पंक्तियों में समेटे हुए विदा दी-
विदा-कुंवारी मां के प्रायश्चित की पीड़ा
विदा-त्याज्य को पुत्र बनाने वाली माता
विदा- लालसा भरे, नीति रीते दुर्योधन
विदा- अस्मिता की रक्षा की अग्नि शलाका।
यदि पांच सर्गों का दार्शनिक विश्लेषण करें तो पंचतत्व की भांति कुंती सर्ग पृथ्वी है, द्रोपदी जल, तो युद्ध अग्नि, दान वायु और विदा आकाश। इन सभी में गूढार्थ छिपे हैं,जिन का विस्तृत विश्लेषण किया जा सकता है। कवि का दार्शनिक अध्ययन भी कई स्थानों पर दृष्टिगत होता है-
दुख मत कर मां
सभी को कब मिला सब
सुख पक्षी हैं उड़ेंगे घोंसलों से।
बांधती जो डोर सुख की पोटली को
वह स्वयं बनती दुखों की ही बटों से।
एक और उदाहरण देखिए-
किसी के हाथ में है सूत्र
हम तो मात्र अभिनेता, नियंत्रित पात्र
बंधन में बंधे कर्तव्य के
अभिनय निभाना है
स्वयं की भावना इच्छा
किसी आकांक्षा का मूल्य क्या
बहती नदी में पात
हमको डूबते, तिरते
कभी मझधार में बहते
कभी तट से लिपटते
उस विराट समुद्र तक
चुपचाप जाना है।
देखिए इन चार पंक्तियों में कैसा दर्शन छिपा है-
क्षमा,दंड, प्रशस्ति, लाभ अलाभ हो
अंत सबका मृत्यु के ही हाथ में
और जीव ही केवल न मरता मृत्यु में
मृत्यु की भी मृत्यु होती साथ में।
इस प्रकार के कितने ही प्रसंग इस पुस्तक में आए हैं। कर्ण, कृष्ण से प्रभावित है। हर सर्ग में कृष्ण किसी न किसी रूप में उपस्थित हैं। कृष्ण की तरह कर्ण का जन्म कुंती की कोख से हुआ तो पालन पोषण राधे मां ने किया। कर्ण की यह व्यथा कुंती सर्ग में परलक्षित होती है।
कर्ण पर तीन महिलाओं का विशेष प्रभाव रहा है, जननी कुंती, ममत्व और अपनत्व देने वाली राधे मां और चिर प्रतिक्षित द्रोपदी । द्रोपदी सर्ग में प्रश्न और उनके समाधान को प्राप्त करता हुआ कर्ण, अपनी पूर्ण प्रखरता के साथ प्रस्तुत हुआ है। इस खंड में महाभारत काल में महिला अधिकारों की बात कवि ने की है जो आज भी प्रासंगिक है –
स्वयंवर में वस्तु वधू होती नहीं
स्वयं का चुनने भविष्य स्वतंत्र
खूंटे से बंधी निरीह
बलि पशु सी विवश होती नहीं।
अथवा
हां किये स्वीकार मैंने पांच पति
देह मन मेरे मुझे अधिकार है
धर्म सत्ता सब पुरुष के पक्षधर
स्त्री द्रोही नियम अस्वीकार है
युद्ध खंड में कवि और भी मुखर हुआ है। उसने धर्म युद्ध पर भी प्रश्न उठाया है-
प्राण लेना लूटना है युद्ध तो
मृत्यु तब बलिदान कैसे हो गई
युद्ध सत्ता के लिए जाता लड़ा
क्रूर हत्या धर्म कैसे हो गई।
दान खंड की इन पंक्तियों में कृष्ण और द्रोपदी
के प्रति कर्ण के विचार प्रकट हुए हैं-
—तुम्हारे प्रति गुप्त श्रद्धा
द्रोपदी के प्रति असीमित प्रेम के हित
स्वयं के हाथों स्वयं बलदान अपना कर दिया है।
विदा खंड में कर्ण कृष्ण को पहचान गया है-
जब भी देखा लगा स्वयं तुम चमत्कार हो
सम्मोहन का मंत्र,मुक्ति के सिंहद्वार हो
तुम अनंत के छंद, देह होकर विदेह हो
मुक्त चेतना में जैसे तुम आर पार हो।
यह काव्य मुक्त छंद में लिखा गया है। पर कविता में लय है,गति है, माधुर्य है। कविता नदी की तरह कलकल बहती हुई बढ़ती है, आनंद देती है और सोचने को विवश करती है। कवि महाभारत में आए कर्ण से संबंधित प्रसंगो को स्पर्श करते हुए आगे बढ़ता है।कवि ने गागर में सागर भरने का सफल प्रयास किया है।यही कवि की सफलता है। यह पुस्तक हिंदी साहित्य जगत में मील का पत्थर साबित होगी।
चर्चाकार… श्री प्रियदर्शी खैरा
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈