☆ जब सारा विश्व राममय हो रहा है, तब प्रासंगिक कृति – “रघुवंशम” – श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆ पुस्तक चर्चा – आचार्य कृष्णकांत चर्तुवेदी ☆
कृति चर्चा
पुस्तक. . . महा कवि कालिदास कृत महा काव्य रघुवंश का हिन्दी पद्यानुवाद
पद्यानुवादक. . प्रो चित्रभूषण श्रीवास्तव विदग्ध
प्रकाशक. . . अर्पित पब्लीकेशन कैथल
मूल्य. . १५० रु
पुस्तक उपलब्ध.. ए २३३ , ओल्ड मिनाल रेजिडेंसी, जे के रोड, भोपाल ४६२०२३
☆ पुस्तक चर्चा – महा कवि कालिदास कृत महा काव्य रघुवंश का हिन्दी पद्यानुवाद… आचार्य कृष्णकांत चर्तुवेदी ☆
प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव विदग्ध कृत महाकवि कालिदास के रघुवंश महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद एक उल्लेखनीय रचनाधर्मी कृति है. महाकाव्य की दृष्टि से और लयात्मक प्रस्तुति की दृष्टि से रघुवंश मे १९०० से अधिक श्लोक हैं जिनका श्लोकशः छंद बद्ध हिन्दी काव्य अनुवाद कर प्रो श्रीवास्तव ने संस्कृत न जानने वाले , राम कथा में अभिरुचि रखने वाले करोड़ो हिनदी पाठको के लिये बहुमूल्य सामग्री सुलभ की है. अनूदित साहित्य सदैव भाषा की श्रीवृद्धि करता है. फिर यह अनुवाद इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हो गया है कि विदग्ध जी के इस हिन्दी अनुवाद को आधार बनाकर अंगिका भअषा में रघुवंश का पद्यानुवाद भि किया गया है.
प्रो श्रीवास्तव की कृतियो में विषय प्रतिपादक के रूप मे उनके व्यक्तितत्व की अनेक धाराओ का दर्शन होता है. वे भारत की सांस्कृतिक वाणी संस्कृत के ज्ञानी , अच्छे पाठक और सहृदय भाव प्रवण अनुवादक है. मेघदूत का काव्यानुवाद वे पहले ही कर चुके है. उनके द्वारा किया गया भगवत गीता के हिन्दी काव्य अनुवाद के कई संस्करण छप चुके हैं.
मूलतः रघुवंश बहुनायक महाकाव्य है. इसे अपूर्ण महाकाव्य कहा गया है. ऐसी जगह काव्य रूक गया है जहां के अनुभव बडे तिक्त और कटु है. महाकवि ने पुराण और महाभारत की वस्तु प्रतिपादन शैली का अवलंब लेकर रघु के वंश के प्रमुख चरित्रो पर यह काव्य रचना की है. रघु दिलीप अज दशरथ और राम के चरित्रो तक उज्जवलतम दीप मालिका राम के चरित्र के दीपस्तभं के रूप मे शिखर तक पहुचंती है. वही अग्निवर्ण जैसे घृणित राजसत्ता के उपजीव्य तक पहुचंते पहुंचते अधंकारमय हो जाती है. महाकवि कालिदास ने वहा पर ही महाकाव्य क्यों समाप्त किया इस पर भी एतिहासिक सामाजिक अकाल मृत्यु आदि आधारो पर विद्वानो ने अपने तर्क दिये है जो भी हो रघुवंश अपने वर्तमान रूप मे हमारे सामने है जो संपूर्ण संस्कृत महाकाव्य परंपरा से पृथक और विलक्षण है.
जहां तक काव्य सौष्ठव और भाव संपदा का प्रश्न है रघुवंशम संस्कृत वांगमय मे सर्वोत्तम और अद्वितीय है. अनुष्टुप जैसे छोटे छंदो में भी गहरी काव्य अनुभूति करना केवल महाकवि कालिदास के ही वश की बात थी. यही कारण है कि विश्व साहित्य में मेघदूत , अभिज्ञान शांकुलतम और रघुवंश का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है. प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव विदग्ध ने अपने स्वाध्याय प्रेमी व्यक्तित्व के कारण महाकवि कालिदास का पूरा साहित्य पढा और मुक्तको में श्रेष्ट मेघदूत तथा महाकाव्य में श्रेष्ठ रघुवंश को अनुवाद के लिये चुना. प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव जी की सहृदयता और वर्तमान विद्रूपता विशेषतः राजसत्ता की निरकुंश व्यवहार शैली ने उन्हें रघुवंश को हिंदी में अनुवाद करने के लिये चुनने हेतु प्रेरित किया होगा.
अनुवाद करना मूल रचनाकर्म से अधिक गूढ कार्य है. मूल रचना मे आपके काव्य संसार कविदेक प्रजापतिः यथास्मै रोचते विश्वं तथेंव परिवर्ततः अर्थात अपार काव्य संसार की सृष्टि करने के लिये कवि ही एकमात्र ब्रम्हा है. नये काव्य में स्वयं कवि ब्रह्मा जी की सृष्टि से भिन्न भी अपने संसार को जैसा रूप देना चाहता है वह देने मे समर्थ है. किंतु अनुवादक की सीमायें मूलकाव्य में बंधी होती हैं. बहुत भावाकुल होने पर भी उसे अपनी सृजनात्मक अभिव्यक्ति को रोकना पडता है. दूसरी ओर कवि की आत्मा मे पर देह प्रवेश भी करना पडता है. यह परव्यक्ति अनुभव के तादाम्य मे समाधि की तरह है. वहां तक पहुंचना फिर योग्य शैली, पद्यति , पदावली और भावाभिव्यक्ति को प्रस्तुत करने मे कुशलता काव्य भाव अनुवाद से की जाने वाली महति अपेक्षाये है.
वैसे तो मेघदूत और रघुवंश के और भी अनुवाद हुये हैं, किंतु प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव विदग्ध की तन्मयता और अनुवाद कुशलता प्रशंसनीय है. कालिदास की कृतियो में एक गहरी दार्शनिकता भी है. जिसे उसी तरह भाव अनुदित करना दुष्कर कार्य है. अपने विशद अध्ययन से ही इसका समुचित निर्वाह करने में विदग्ध जी सफल हुये हैं. रघुवंश का प्रथम पद्य इसका उत्तम उदाहरण है. छोटे छंद अनुष्टुप में किया गया मंगलाचरण का अनुवाद करते हुये प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ने लिखा है
जग के माता पिता जो पार्वती शिव नाम
शब्द अर्थ समएक जो उनको विनत प्रणाम
इसी भांति महाकवि कालिदास द्वारा दिलीप की गौसेवा का जो सुरम्य वर्णन किया गया है उसका अनुवाद भी दृष्टव्य है.
व्रत हेतु उस अनुयायी ने आत्म, अनुयायियो को न वनसाथ लाया
अपनी सुरक्षा स्वतः कर सके हर मुनज इस तरह से गया है बनाया
जब बैठती गाय तब बैठ जाते रूकने पे रूकते और चलने पे चलते
जलपान करती तो जलपान करते यूं छाया सृदश भूप व्यवहार करते.
रघु के द्वारा अश्वमेध यज्ञ के अश्व की रक्षा के प्रसंग मे इंद्र से युद्ध करते हुये उसके महत्व को स्वंय इंद्र रेखांकित करते हुये कहते हैं. .
वज्राहत रघु के पराक्रम और साहस से
होकर प्रभावित लगे इंद्र कहने
सच है सदा सद्गुणो में ही होती है ताकत
सदा सभी को करने सदा वश मे
रघु की दिग्विजय के संदर्भ में कलिंग के संबंध मे अनुवाद की सहजता देखे
बंदी कर छोडे गये झुके कलिंग के नाथ
धर्मी रघु ने धन लिया रखी न धरती साथ
कौरव की गुरूदक्षिणा का संदर्भ देखें. . .
पर मेरे फिर फिर दुराग्रह से क्रोधित हो
मेरी गरीबी को बिन ध्यान लाये
दी चौदह विद्या को ध्यान रख
मुझसे चौदह करोड स्वर्ण मुद्रा मंगाये
अज अब इंदुमती के स्वंयवर के लिये आये है रात्रि विश्राम के बाद प्राप्त बंदिगण स्तुति कर रहे है. . .
मुरझा. चले हे पुष्प के हार कोमल औं फीकी हुई जिसकी दीप्त आभा
पिंजरे मे बैठा हुआ छीर भी यह जगाता तुम्हें कह हमारी ही भाषा
रघुवंश का छटवा संर्ग अत्यंत लोकप्रिय एवं आकर्षक है. इसकी उपमायें उत्प्रेक्षाये एवं उपमानो का अनुवाद अदभुत एवं पूर्णतः सार्थक है. इसी सर्ग के दीपशिखा के उपमान के कारण महाकवि कालिदास को दीपशिखा कालिदास कहा जाता है. इंदुमती के स्वंयवर में आये राजाओ का मनोरम वर्णन विज्ञ चारणो के द्वारा किया जा रहा है. उसके बाद इंदुमती की सखी एक एक राजाओ की वरण योग्य विशेषताये बता रही है.
तभी सुनंदा ने इंदुमती को मगध के नृप के समीप लाकर
सभी नृपो की कुलशील ज्ञाता प्रतिहारिणी ने कहा सुनाकर
महिष्मति के राजा प्रदीप का उसके पूर्वजो अनूप और सहस्त्रबाहु सहस्त्रार्जुन का परिचय देते हुये अंत मे सुनंदा ने कहा
इस दीर्घ बाहु की बन तू लक्ष्मी यदि राजमहलो की जालियो से
माहिष्मति की जलोर्मि रचना सी रेवा जो लखने की कामना है
इन छह पद्यो का अनुवाद श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव ने बडे मनोयोग एवं भाव प्रबलता के साथ किया है. महाकवि कालिदास का उज्जयनी प्रेम प्रसिद्ध है. अनुवादक कवि विदग्ध भी इससे अछूते नही है.
अनुवाद दृष्टव्य है.
ये विशाल बाहु प्रशस्त छाती सुगढ बदन है अवंतिराजा
जिसे चढा शान पर सूर्य सी दीप्ति के गढता रहा है जिसको विधाता
इन पद्यो के द्वारा अनुवादक का संस्कृत भाषा का गहरा ज्ञान , काव्य का उत्तम अभ्यास और भाषातंर करने की प्रशंसनीय क्षमता का परिचय मिलता है. इसके अतिरिक्त ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रो में दिये गये उनके योगदान से भी उनकी बहुमुखी प्रतिभा का अनुभव होता है. इस परिपक्व वय मे ऐसी जिज्ञासा बौद्धिक प्रभाव और गतिशीलता दुलर्भ है. वे आज भी तरूण की भांति नगर की सांस्कृतिक एवं साहित्यीक गतिविधियों का गौरव बढा रहे है.
मै प्रो चित्रभूषण श्रीवास्तव विदग्ध को उनकी इस अनूदित कृति के लिये हृदय से बधाई देता हॅू. मुझे पूरा विश्वास है कि रघुवंश हिंदी पद्यानुवाद सुधिजनो को आल्हादित एवं उनकी ज्ञान पिपासा को संतुष्ट करेगी.
पुस्तक चर्चा – आचार्य कृष्णकांत चर्तुवेदी
पूर्व निदेशक कालिदास अकादमी उज्जैन
नर्मदा पुरम , जबलपुर
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈