☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘लोग भूल जाते हैं’ – श्री कमलेश भारतीय ☆ समीक्षक – सुश्री सीमा जैन ☆

पुस्तक: लोग भूल जाते हैं

लेखक: कमलेश भारतीय

प्रकाशक: न्यूवर्ल्ड पब्लिकेशन्स 

पृष्ठ संख्या : 88 

मूल्य: 213/- रुपये

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

कमलेश भारतीय जी हिन्दी पत्रकारिता व साहित्य जगत के जाने माने हस्ताक्षर हैं। लेकिन साहित्य के क्षेत्र में वह अधिकतर कथा और लघु कथा के क्षेत्र में अपना लोहा मनवाते रहे थे। यदा कदा उनकी कविताएं भी पढ़ने को मिलती रहीं जो कि बहुत दमदार होतीं थीं। “लोग भूल जाते हैं” उनका पहला काव्य संग्रह है जिसे उन्होंने अपने मित्रों की आग्रह पर छपवाया है। इस संग्रह की 56 कविताएं बहुत ही प्रभावशाली हैं।

यह कविताएँ कवि की परिपक्व सोच और जीवन के अनुभवों का निचोड़ होने के साथ-साथ एक सहज अभिव्यक्ति करती हुयी भी दिखाई देती है। बदलती जीवन शैली और उसकी विषमताओं में घिरे हुए कवि का अपने गांव, उसकी पगडंडियों और उसकी मिट्टी की खुशबू के प्रति आकर्षण भी दिखाई देता है। इसकी झलक मिलती है “महानगर, कुछ क्षणिकाएँ” तथा “देर गए जब चांदनी रात में” जैसी कविताओं में !

“गांव तक जाने वाली पगडंडियां/ सब सड़क बन गयीं/ और सादगी बुहार कर फेंक दी/ कैसे लौटाऊँ/ अपना वह भोला सा, मासूम सा/गांव…?”

या फिर देखिए यह क्षणिका:

“गांव ने उलाहना दिया/ महानगर के नाम/ मेरे सपूत छीन लिए/ दिखा मृगतृष्णा की छांव”

कुछ कविताएं पिता को समर्पित हैं जैसे कि संग्रह की पहली कविता “जादूगर नहीं थे पिता” जिसमें कवि कहता है:

“जादूगर नहीं थे पिता/पर किसी बड़े जादूगर से कम भी नहीं थे!/ सुबह घर से निकलते समय/ हम जो जो फरमाइशें करते/ शाम को आते ही/ अपने थैले से सबको मनपसंद चीज हंस-हंसकर सौंपते जाते!/ जैसे कोई जादूगर का थैला हो/ और उसमें से कुछ भी निकाला जा सकता हो!/

पिता बन जाने पर/ समझ में आया कि जादूगर की हंसी के पीछे/ कितनी पीड़ा छिपी होती है। “

इसी प्रकार कविता “पिता को याद करते हुए” में कवि बचपन में ही पिता को खो देने के अवसाद का बड़ा भावुकता से वर्णन करता है और कहता है:

मेरे सपने में जब भी आप आते हो/ मैं यही विनती करता हूं/लौट आओ ना पिता/मुझे मेरा बचपन दे दो/आप थे तो बचपन था… अब आप नहीं हो/ तो बचपन कहां?”

संग्रह की अनेकों रचनाओं में हमारे राजनीतिक और सामाजिक जीवन के अनेक पहलुओं पर कवि का दृष्टिकोण खुलकर हमारे सामने आता है! इनमें से कुछ कविताएं संग्रह की बेहतरीन कविताएँ हैं, ऐसा निस्संकोच कहा जा सकता है। इस क्रम में “राजा को क्या पसंद है, ” “आजकल हर रोज सुबह, ” “जनता बनाम रोटी, ” “संपादक के नाम, ” “अपनी आवाज डूबने से पहले, ” “वाह बापू, ” “न जाने कब” जैसी कविताओं का उल्लेख किया जा सकता है। इस श्रेणी की कविताओं में अक्सर कवि व्यंग्यात्मक शैली अपना कर अपनी बात रखता है। उदाहरण के तौर पर यह पंक्तियां देखिए:

“संपादक जी, इक बात कहूं/ बुरा तो नहीं मानोगे जी/आपका अखबार स्याही से नहीं/ लहू से छपता है जी/ कहीं गोली ना चले/ बम ना फटे आगजनी ना हो/ तब आप क्या करेंगे जी?”

इसी प्रकार कविता “न जाने कब” में कवि पंजाब में आतंकवाद के दिनों में एक आम व्यक्ति की स्थिति को इस प्रकार अभिव्यक्त करता है:

“न जाने कब, कहां/ किस मोड़ पर/ मेरी लाश बिछा दी जाएगी/ आप चौंकिए नहीं/मेरी किसी से कोई दुश्मनी नहीं! पर सड़क के एक किनारे/ त्रिशूल/ और दूसरे किनारे तलवार/ मेरी इंतजार में हैं!/ ना जाने कब, क्यों/ त्रिशूल या तलवार/ मेरी दुश्मन हो जाए। “

इसी प्रकार कविता “वाह बापू”में आज के नेताओं पर कटाक्ष करते हुए कवि कहता है:

वाह बापू/क्या मंत्र दिया नेताओं को/ वे कुछ भी बुरा नहीं देखते/ कहीं ट्रक से कुचल कर/ सबूत मिटाने की कोशिश/ या फिर कोमल सी लड़की से/ लगातार यौन शोषण/ वे कुछ भी नहीं देखते/ सचमुच पुलिस, है मूकदर्शक/ और कोर्ट है बंधे हाथ/ वे कुछ भी नहीं सुनते/ चाहे कितने ही प्रदर्शन कर लो/ या फिर कितनी ही मोमबत्तियां जला लो/ वे बिल्कुल नहीं पिघलते”

इसी प्रकार संग्रह की कुछ कविताएं कवि के अपने दायित्व के बारे में हैं जिन में कवि अपने दोस्तों से कहता है कि वह उसे जगाए रखें ताकि वह अपने दायित्व से विमुख न हो! कविता “साहित्यकार की वसीयत में” वह एक साहित्यकार की संघर्षपूर्ण परिस्थितियों का इन पंक्तियों में बखूबी वर्णन करता है:

मेरे शव पर एक भी फूल ना चढ़े/ ध्यान रखना मेरे दोस्त!/ मैंने फूलों के लिए नहीं/ सिर्फ कांटों की चुभन के लिए जन्म लिया था/ ना थैलियां भेंट करना मेरी पीढियों को/ थैलियां किसी काम की नहीं/ मैं जीवन भर कर्ज़ तले दबा/ कराहता रहा और सिसकता रहा”

इसी प्रकार एक छोटी कविता में कवि कहता है:

मेरे काले दिनों के/ संघर्ष के साथी/ मुझे जगाए रखना!/ मैं सच का साथ देना बंद करने लगूँ/ या अन्याय के खिलाफ आवाज/ ना उठा सकूं/ तुम मुझे जगाए रखना/ ताकि मैं संघर्ष करता रहूं/ और काली शक्तियों के खिलाफ/ लड़ता रहूं। “

कवि के दायित्व को प्रखरता से रखती हुई एक और रचना है “मेरी कविता” जिसमें कवि कहता है:

“मेरी कविता/ जरा होशियार रहना/बदलते वक्त से/ कहीं ऐसा ना हो कि/ शब्द हो जाएं चापलूस/ और तुम किसी बड़े सेठ की/ खुशी के लिए/ छोड़ दे विरोध/ बन जाए गलत राह की हमसफर…”

संग्रह की कुछ अन्य कविताएं कवि की गहन संवेदनशीलता की परिचायक हैं जैसे कि किताबें नामक यह रचना जिसमें कवि किताबों के प्रति अपना प्रेम इस प्रकार व्यक्त करता है:

किताबें/ मुझे प्रेमिकाओं जैसी लगती हैं/ जिन दिनों बहुत उदास होता हूं/ ये मेरे पास आती हैं/ और मुझे गले से लगा लेती हैं!”

“डायरी के बहाने” कविता में कवि डायरी में लिखे नाम और पतों को देखकर उससे जुड़े लोगों को याद करता है तो कविता “बसंत” में अपने आसपास पसरी अव्यवस्थाओं और समस्याओं की बात करते हुए बसंत की सार्थकता की कामना करता है:

बसंत तुम आए हो/पर मैं तुम्हारे फूलों का/ क्या करूं?/ मेरी तो हर गली उदास है!/ कहीं कर्फ्यू तो कहीं आग लगी है/ बसंत मेरे नन्हे मुन्ने के होठों पर/ मुस्कान खिला दो/ जरा मेरे शहरों से कर्फ्यू तो हटा दो। / जरा मेरी गलियों में/ रौनक तो लौटा दो। “

संग्रह की अंतिम कविता “कपोतों की व्यथा” भी अत्यंत सटीक है जिसमें कवि शांति सद्भावना के प्रतीक स्वरूप नेताजी के कर कमल से खुले आकाश में छोड़े गए दो श्वेत कपोतों के बारे में जानना चाहता है कि यह बेचारे श्वेत कपोत कब तक पिंजरे में बंद रखे गए? और अंत में व्यंग्यात्मक शैली में कवि कहता है:

पिंजरे में बंद करने/और खुला छोड़ने वाले हाथ/ सच कहूं?/ मुझे बिल्कुल एक ही लगे। “

कुल मिलाकर एक बहुत ही प्रभावशाली और सशक्त काव्य संग्रह के लिए कमलेश भारतीय जी बधाई के पात्र हैं। आशा है कि वह कहानियों के साथ साथ अपना काव्य लेखन भी इसी तरह जारी रखेंगे और जल्द ही अपने एक और काव्य संग्रह से हिंदी साहित्य जगत को समृद्ध करेंगे।

समीक्षक – सुश्री सीमा जैन 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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