श्री सुरेन्द्र सिंह पँवार

☆ पुस्तक चर्चा ☆ विवेक के व्यंग्य….  ☆ श्री सुरेन्द्र सिंह पँवार ☆ 

पुस्तक – व्यंग्य संग्रह – ‘समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य

व्यंग्यकार  – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव  विनम्र’

प्रकाशक – इंडिया नेट बुक्स, दिल्ली 

मूल्य – 300/- हार्ड बाउंड

200/- पेपर बैक

अमेज़न लिंक >>>>  समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य

 

विवेक के व्यंग्य….  

व्यंग्य, हिन्दी साहित्य की बेगानी विधा है। फ़क्खड़ कवि और समाज-सुधारक संत कबीर ने इस विधा से हम सभी को परिचित कराया। उन्होंने तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरीतियों, पाखंडवाद और विसंगतियों पर इसी मखमली-पनही से प्रहार किया था। व्यंग्य में उपहास, मजाक (लुफ़त) और इसी क्रम में आलोचना का प्रभाव रहता  है। दांते की लैटिन भाषा में लिखी किताब ‘डिवाइन कॉमेडी’ मध्ययुगीन व्यंग्य का महत्वपूर्ण कार्य है जिसमें तत्कालीन व्यवस्था का मजाक उड़ाया गया है। हिन्दी में हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, रवींद्रनाथ त्यागी, के. पी. सक्सेना, शरद जोशी  इसी कंटकाकीर्ण पथ पर चले और उन्होंने जो प्रतिमान स्थापित किये उसी का अनुसरण करते हुए अभियंता-कवि  विवेकरंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ हौले-हौले बढ़ रहे हैं।

समीक्षित कृति “समस्याओं का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य”, व्यंग्यविद विवेकरंजन का ताजा व्यंग्य-संग्रह है जिसमें 33 विविधवर्णी व्यंग्य सम्मिलित हैं। इसके पूर्व उनकी  ‘रामभरोसे’, ‘कौआ कान ले गया’, ‘मेरे प्रिय व्यंग्य’, ‘धन्नो बसंती और बसंत’ जैसी व्यंग्य की किताबें प्रकाशित, चर्चित व पुरस्कृत हो चुकीं हैं। अलावा इसके, उन्होंने ‘मिली भगत’ एवं  ‘लॉकडाउन’ नाम से दो  संयुक्त व्यंग्य-संग्रहों का संपादन भी किया जिसमें दुनिया भर के व्यंग्यकारों के व्यंग्य शामिल हैं। “आक्रोश” शीर्षक से उनकी नई कविताओं की किताब भी है।

विवेक रंजन: एक स्नातकोत्तर सिविल इंजीनियर हैं, नर्मदा तट के वासी हैं, साहित्य-संस्कारी हैं, उनकी भाषा शिष्ट-विशिष्ट है। मध्यप्रदेश विद्युत विभाग में अधिकारी पद पर कार्य करते हुए उनकी तीखी (कटाक्ष करने वाली) लेखन-शैली का स्वाभाविक विकास हुआ और उन्होंने उसमें सिद्धि भी प्राप्त की। सामान्यत: वे अपनी बंदूक खुद पर ही तानते हैं, सधे-अंदाज में खुद पर व्यंग्य कसते हैं। और इसलिए वे भली-भांति जानते हैं कि एक औसत-आदमी, व्यंग्य का कितना वेग (प्रहार) झेल सकता है ? दूसरे शब्दों में कहूँ तो वे व्यंग्य में उतने ही वोल्टेज का प्रयोग करते हैं, जो सामने वाला व्यक्ति आसानी से सहन कर सके, जिसके झटके से वह बावला (विक्षिप्त) न जाए, अपने बाल न नौचने लगे। ‘वाटर स्पोर्ट्स’, ‘क्या रखा है शराफत में’ जैसी व्यंग्य रचनाएं इसी श्रेणी के हैं। प्रथम पुरुष में सृजित ऐसी व्यंग्य-शैली (आयरनी) में प्रत्यक्षत: जो कहा गया है, वही उसका अर्थ नहीं है, वह कुछ-और व्यंजित करता है। समझदार समझ लेता है। अहंकार में डूबा पाखंडी व्यक्ति उसे नहीं समझ पाता। विवेक रंजन ने व्यंग्य की इसी पराशक्ति का फायदा उठाया और व्यवस्था का हिस्सा होते हुए व्यवस्था पर चोट कर पाए।

‘मांगे सबकी खैर’, ‘जिसकी चिंता है वह जनता कहाँ है’, ‘समस्या का पंजीकरण’, ‘स्वर्ग के द्वार पर करोना टेस्ट’ जैसे व्यंग्यों में उन्होंने रामदीन, रामभरोसे, रमेश बाबू जैसे पात्रों का सृजन किया है, उनके माध्यम से अपने पड़ोसियों पर निशाना साधा है, सहकर्मियों को भी जद में लिया है और अन्य-पुरुष में वक्रोंक्तियाँ दी हैं। ‘अथ चुनाव कथा’, ‘सीबीआई का सीबीआई के द्वारा सीबीआई के लिए’, ‘जीएसटी बनाम एक्साईज और सर्विस टेक्स’, ‘फ़ोटो में आत्मनिर्भरता यानी सेल्फ़ी’, ‘हैलो व्हाट्स अप’, ‘आँकड़ेबाजी’ जैसे व्यंग्य वर्तमान व्यवस्थाओं की विद्रूपताओं से उपजे हैं।

मास्क के घूँघट और हैंडवाश की मेहंदी के साथ मेड की वापिसी’, फार्मेट करना पड़ेगा वायरस वाला 2020’, ‘करोना का रोना’, ‘अप्रत्यक्ष दानी शराबी’  ‘जरूरी है आटा और डाटा’, ‘स्वर्ग के द्वार पर करोना टेस्ट’, ‘रमेश बाबू की बैंकाक यात्रा और करोना’, कोरोजीवी व्यंग्य हैं (कोरोजीवी व्यंग्य शीर्षक, श्री प्रकाश शुक्ल के व्याख्यान कोरोजीवी कविता : अर्थ और संदर्भ से प्रेरित होकर लिया है, जिसका लिप्यंतरण “आजकल” के नवंबर, 2020 में प्रकाशित है)। देखा जावे तो, कोरोनाकाल के इन व्यंग्यों की भाषा और संरचना दोनों ही बदले-बदले से है। इनमें निजी अनुभूतियाँ सार्वजनिक हुईं हैं। इनमें बदलते समय के नए बिम्ब हैं, लॉकडाउन में फंसे-बिछड़े मजबूरों की विवशता है, सरकारों की बेवसी  है, इंटरनेट के जरिए मोबाइल पर सिमट आए रिश्ते हैं। इन व्यंग्यों में प्रतिभा से अधिक श्रम को  महत्व मिला है। इन कोरोजीवी व्यंग्यों का महत्व इस कारण नहीं है कि वे महामारी के बीच लिखे गए हैं बल्कि इस कारण से हैं कि वे महामारी के बावजूद लिखे गए हैं जिनमें युगबोध की उपस्थिति तो है ही, साथ-ही-साथ इतिहास-बोध की नई अंतर्दृष्टि भी है। ‘इदं पादुका कथा’, ‘शर्म! तुम जहां हो लौट आओ’, ‘बसंत और बसंती’ को ललित व्यंग्य की श्रेणी में रखा जा सकता है।

रोजमर्रा के क्रम में; हम सम-सामयिक विषयों की जानकारी न्यूज पेपर्स, टी व्ही चैनल्स, इंटरनेट, मोबाइल इत्यादि से लेते हैं, प्रिय विषयों पर विस्तार से चर्चा करते हैं, कभी-कभी अति महत्वपूर्ण विषयों पर टिप्पणियाँ (नोट्स) भी बनाकर रख लेते हैं और इस प्रकार किसी तड़कती-भड़कती सूचना या घटना की इति-श्री हो जाती है। परंतु इन सूचनाओं को संग्रहित कर, उन्हें विचारों से मथकर, उनका नैनू (सार-तत्व) निकालकर, उनकी विसंगति को पहचान कर प्रहार करने का काम व्यंग्यकार करता है। जैसे कि, गांधी जी की तस्वीर तो हर सरकारी कार्यालय में साहब की कुर्सी के पीछे लगी होती है- दुशाला ओढ़े, हाथ में लाठी लिए, लेकिन यही तस्वीर विवेक जैसे व्यंग्यकार के लिए व्यंग्य की सामग्री जुटाती है(देखिए ई-अभिव्यक्ति.कॉम/ साहित्य एवं कला विमर्श का साप्ताहिक स्तम्भ ‘विवेक साहित्य’ के अंतर्गत विवेक जी का व्यंग्य- “गांधी जी आज भी बोलते हैं”)

व्यंग्य लेखक निर्मम, कठोर और मनुष्य-विरोधी नहीं होता है, ऐसा भी नहीं कि उसे सिर्फ बुराई या विसंगति ही दिखती है और ऐसा भी नहीं है कि व्यंग्य, मरखना बैल या कटखना कुत्ता होता है, जिसका स्वभाव ‘जल्दी क्रोध में सींग मारने’ या ‘अकसर काटने वाला’ होता है। व्यंग्य-लेखन एक गंभीर कर्म है। परंपरा से हर समाज की कुछ संगतियाँ होती हैं, सामंजस्य होते हैं, अनुपात होते हैं। ये व्यक्ति और समाज दोनों के होते हैं। जब यह संगति गड़बड़ होती है, तभी व्यंग्य का जन्म होता है। व्यंग्यकार विवेक द्वारा अपने व्यंग्यों में प्रयुक्त  ‘वोट की जुगत में’, ‘गरीबी हटाओ’, ‘सुनहरे कल की और’, ‘फील गुड’, ‘पंद्रह लाख का प्रलोभन’, ‘सीने की नाप’, ‘चाय पर चर्चा’, ‘खटिया पर चौपाल’, ‘मोदी मंत्र’ जैसे जुमले जनता-जनार्दन के बीच से ही उठाए हैं। दरअसल व्यंग्य एक माध्यम है, जो समाज की विसंगतियों, भ्रष्टाचार, सामाजिक शोषण अथवा राजनीति के गिरते स्तर की घटनाओं पर अपरोक्ष रूप से व्यंग्य या तंज कसता है, कटाक्ष करता है जो इन आबाँछित स्थितियों के प्रति पाठकों को सचेत करता है।

अपने व्यंग्यों में व्यंग्य-शिल्पी विनम्र अपने पूर्वज कबीर को स्मरण करते हैं, उनका अनुगमन करते हैं और उनके जैसी खरी-खरी सुनाते हैं। परंतु वे बाजार में खड़े सब की खैर नहीं मांगते, उनका तर्क है कि  ‘क्या खैर मांगने से बात बन जाएगी’? कदापि नहीं। वे, ‘महात्मा कबीर के विचारों से अपनी एक मीटिंग फिक्स करने’ यानी इस पर ‘पुनर्विचार करने’ का सुझाव देते है। खड़ी हिन्दी में आंग्ल भाषा के शब्दों की प्रचुरता, वाक्यों का संक्षिप्तीकरण, संभाषण में कोडिंग-डिकोडिंग कुल मिलाकर हिंगलिश जैसी है इन व्यंग्यों की भाषा। उदाहरण के तौर पर,

“दरअसल यह लव मैरिज का अरेंज़्ड वर्सन था”(शर्म !तुम जहां कहीं हो लौट आओ/24)

”लिंक फॉरवर्ड, रिपोस्ट ढूंढते हुए सर्च इंजिन को भी पसीने आ जाते हैं”(फेक न्यूज/71)

“दुनिया में हर वस्तु का मूल्य मांग और सप्लाई के एकोनॉमिक्स पर निर्भर होता है”(किताबों के मेले/78)

“गड़े मुर्दों को खोज कर सर्च रिसर्च करने लगे”,(सीबीआई का सीबीआई के द्वारा सीबीआई के लिए /98)

व्यंग्यकार ने  अपने व्यंग्यों में कतिपय नए शब्दों को गढा और प्रयोग किया है जैसे, कनफुजाया (किंकर्तव्य विमूढ़), ठुल्ला (पुलिस के लिए प्रयोग कतिपय अशिष्ट शब्द), मिस्सड़ ( बिस्किट, खटमिट्ठा नमकीन और मीठे खुरमों के तीन डिब्बों में जो भी थोड़ा-थोड़ा चूरा बचा का मिश्रण) आदि । व्यंग्यकार ने सामाजिक विसंगतियों की सपाट बयानी (‘अमिधा’ में अभिव्यक्ति ) न कर परोक्षत: (‘व्यंजना’ में व्यंजित) चित्रण किया है। मुहावरे, प्रतीकों और मिथकों का आसरा लेकर वे किसी घटना या व्यक्ति की परतें उधेड़ते हैं तो निशाने पर बैठा व्यक्ति न तो ठीक से हँस पाता है और न ही रो पाता है, बस ! तिलमिला कर रह जाता है। हाँ, कई बार आक्रोश अवश्य पैदा होता है और यही व्यंग्य की ताकत है। उदाहरण के तौर पर –

#“हड़बड़ी में गड़बड़ी से उपजे फेक न्यूज सोशल मीडिया में वैसे ही फैल जाते हैं जैसे कोरोना का वायरस, सस्ता डाटा फेक न्यूज प्रसारण के लिए रक्तबीज है”। (फेक न्यूज/71)

#“मैं पादुका हूँ । वही पादुका, जिन्हें भरत ने भगवान राम के चरणों से उतरवाकर सिंहासन पर बैठाया था। इस तरह मुझे वर्षों राज करने का विशद अनुभव है। सच पूछा जाये तो राज काज सदा से मैं ही चला रही हूँ, क्योंकि जो कुर्सी पर बैठ जाता है वह बाकी सबको जूती के नोक पर ही रखता है। आवाज उठाने वाले को जूती तले मसल दिया जाता है”। (इदं पादुका कथा/91)

#”कलमकार जी ज्यों ही धार्मिक किताबों के स्टाल के पास से निकले तो ये किताबें पूँछ बैठी हैं उनके आसपास सीनियर सिटीजन ही क्यों नजर आते हैं”। (किताबों के मेले)

#“नेता जी बोलते तो हम ना भी मानते, पर जब आँकड़े बोल रहे हैं कि देश की विकास दर  नोट बन्दी से कम नहीं हुई तो क्या करें, मानना ही पड़ेगा। हम तो एक दिन स्टेशन पर अपना मोबाइल वैलेट लेकर स्टाल-स्टाल पर चाय ढूंढ रहे थे, पर हमें चाय नसीब नहीं हुई थी, पर एक कप चाय से देश की विकास दर थोड़े ही गिरती है”। (आँकड़ेबाजी/105)

इंडिया नेटबुक्स, नोएडा से प्रकाशित और बालाजी ऑफसेट से मुद्रित  इस व्यंग्य संग्रह में यदि मुद्रण की भूलों को नजरंदाज कार दिया जावे तो दो सौ रुपये मूल्य का पेपरबैक में आकर्षक आवरण युक्त यह एक उत्तम संकलन है। अपनी बात समाप्त करने के पहले अनुज अभियंता विवेकरंजन से छोटी-छोटी दो बातें अवश्य कहना चाहूँगा-

पंच लाइन (वन लाइनर व्यंग्य वाण) व्यंग्य को रोचकता प्रदान करते हैं, जैसा कि श्रीलाल शुक्ल के “राग दरबारी” में हैं। विशिष्ट दक्षता के बावजूद वे इनका सीमित प्रयोग किया है

माँ(जननी), मातृ भूमि (जन्म भूमि) के क्रम में मातृभाषा से प्रतिबद्धता हमारी जीवंतता का प्रतीक है। अन्य भाषाओं के; विशेषकर अंग्रेजी, प्रचलित शब्दों के अधिकाधिक प्रयोग से हमारी भाषा के भंडार में श्रीवृद्धि तो अवश्य हो रही है , परंतु डर है ! कल को ऐसा न हो कि आने वाली पीढ़ी यह कहने लगे कि, “हम क्या करें हम तो वही पढ़ रहे थे जो हमें पढ़ाया जा रहा था, जैसा हमें पढ़ाया जा रहा था, हम तो यही समझते हैं कि  हमारी भाषा ऐसी ही है, या होना चाहिए”।

देखा जावे तो, व्यंग्यकार ने व्यंग्यों के आंतरिक ढांचे में विडंबनाओं / विसंगतियों / विद्रूपताओं  को पहचानकर सार्वजनिक रूप से प्रकटीकरण करने और अपने अंतस को परिष्कृत करने  का भरपूर प्रयास किया है। उन्होंने आज के फैशन और पैशन को अपने व्यंग्यों में व्यंजित किया है। उनकी अपनी जमीन है, उनका अपना आकाश हैं। जिस आयु-वर्ग और कार्य-संस्कृति के व्यस्त युवालिए ये व्यंग्य लिखे गए हैं, वे वास्तव में उन्हें पढ़ रहे हैं, पढ़ने का आनंद ले रहे हैं, पढ़ना उनकी आदत बनती जा रही है, वे [व्यंग्य के] मर्म को ग्राह्य कर अपनी जीवन-पद्धति (लाइफ स्टाइल) में सकारात्मक सुधार ला रहे हैं। अत: कहा जा सकता है कि व्यंग्यकार विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ अपने उद्देश्य में सफल हुए हैं। यहाँ यह कहने में भी कोई संकोच नहीं  कि इस व्यंग्य-संग्रह (समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य ) को उसके हिस्से का प्यार और दुलार अवश्य प्राप्त होगा।  हम सभी व्यंग्यकार की अन्य प्रकाशाधीन व्यंग्य-कृतियों यथा; “खटर-पटर”, “बकवास काम की”, “जय हो भ्रष्टाचार की” की उत्सुकता से प्रतीक्षा करेंगे।

समीक्षाकार

श्री सुरेन्द्र सिंह पँवार     

201,शास्त्री नगर,गढ़ा,जबलपुर(म.प्र.)-482003 मोबाइल9300104296/7000388332/ईमेल [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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