श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 8
मैं सिमट रही हूँ — कवयित्री – रेखा सिंह समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
पुस्तक का नाम- मैं सिमट रही हूँ
विधा- कविता
कवयित्री – रेखा सिंह
प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे
फल्गु की तरह अंतर्स्रावी कविताएँ ☆ श्री संजय भारद्वाज
भूमिति के सिद्धांतों के अनुसार रेखा अनगिनत बिंदुओं से बनी है। इसमें अंतर्निहित हर बिंदु में एक केंद्र होने की संभावना छिपी होती है। ऐसे अनेक संभावित केंद्रों का समुच्चय हैं कवयित्री रेखा सिंह। परिचयात्मक कविता में वे अपनी क्षमताओं, संभावनाओं और आत्मविश्वास का स्पष्ट उद्घोष भी करती हैं-
मैं तो रेखा हूँ
मुझमें क्या कमी…!
प्रस्तुत कवितासंग्रह में कवयित्री ने अपने समय के अधिकांश विषयों को बारीकी से छूने का प्रयास किया है। नारी विमर्श, परिवार, आक्रोश, विवशता, गर्भ में पलता स्वप्न, लोकतांत्रिक चेतना, प्रकृति, विसंगतियाँ, धार्मिकता, अध्यात्म जैसे अनेक बिंदु इस रेखा में समाहित है। अपने परिप्रेक्ष्य से शिकायत का स्वर गूँजता है-
मैं गाती / यदि गाने का मौका दिया होता
मैं हँसाती / यदि हँसने का मौका दिया होता
ये शिकायत नारी की विशाल दृष्टि और परिवर्तन की अदम्य जिजीविषा में रुपांतरित होती है। कवयित्री इला के अंतराल में समानेवाली सीता नहीं बनना चाहती। दीपिका तो अवश्य जलेगी भले उजाले में ही क्यों न जलानी पड़े। मीमांसा तार्किक है, उद्देश्य स्पष्ट है-
अंधेरे में जलाऊँगी दीपिका,
क्योंकि उजाले में
दीपिका का अस्तित्व
तुम नहीं समझ सके !
अपराजेय नारीत्व चरम पर पहुँचता है, अभिव्यक्त होता है-
ओ सिकंदर,
तुम, विश्वविजेता बन सकते,
मुझे नहीं जीत सकते..!
पर सिकंदर का प्रेम पाते ही सारी कुंठाएँ विसर्जित हो जाती हैं। प्रेम के आगे सारे वाद बौने लगने लगते हैं। कवयित्री का स्त्रीत्व कलकल प्रवाहित होने लगता है-
आज कोई सिकंदर,
मेरे आगे झुका है,
आज फिर किसी नल ने
दमयंती से स्वयंवर रचाया है,
आ, अब लौट चलें अपनी दुनिया में,
बाकी पल गुज़ार लेंगे हँसते-हँसते..!
मानव के भीतर की आशंका से कवयित्री रू-ब-रू होती हैं, प्रश्न करती हैं-
क्या होती हैं विभ्रम की प्रवृत्तियाँ?
रस्सी को सर्प समझने की रीतियाँ?
रेखा सिंह ने समाज को समग्रता से देखने का प्रयास किया है। ‘सास-बहू’ के उलझे समीकरणों के तार सुलझाने की ईमानदार कोशिश है ‘काश’ नामक कविता। ‘धरातल’ राजनीतिक-सामाजिक विषमता के धरातल पर खड़े देश की सांप्रतिक पीड़ा का स्वर बनती है। ‘जोगी’ ‘स्नातक-भिक्षुक’ बनाती हमारी शिक्षानीति पर व्यंग्य करती है तो ‘जंगल की ओर’ सभ्यता की यात्रा की दिशा पर गंभीर प्रश्न खड़े करती है। ‘आखिर क्यों’ और इस भाव की अन्य कविताएँ आतंकवाद की मीमांसा करने का प्रयास करती हैं।
शासनबद्धता का चोला ओढ़कर अन्याय को रोक पाने में असमर्थता व्यक्त करनेवाले भीष्म पितामह को आदर्श मानने से इंकार करना कवयित्री का सत्याग्रह है। ‘गंगापुत्र’ नामक इस कविता में दायित्व से बचने के बहाने तलाशनेवाली मानसिकता पर कठोर प्रहार है। संवेदना से लबरेज़ संग्रह की इन कविताओं में मनुष्य के सूक्ष्म मन को स्पर्श करने का सामर्थ्य है। ‘पुश्तैनी घर’ में ये संवेदना भारतीय प्रतीकों के संकेत से प्रखरता उभरी है। यथा-
तुलसी का चबूतरा
बन गया दीवार बंटवारे की..!
शहर द्वारा अपहृत होते गाँव ‘अनमोल’ कविता में सजीव हो उठते हैं-
सींचता बही जो बोता है,
उसके अंदर एक बच्चा रोता है..
झारखंड की हरित पृष्ठभूमि में रची गई इन कविताओं में प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है। अधिकांश कविताओं में ऋतुओं का वर्णन शृंगार रस में हुआ है। संग्रह में कई गीत भी शामिल किए गए हैं। इनमें गेयता और मिठास दोनों हैं। पूरे संग्रह में आँचलिकता मिश्री-सी घुली हुई है और उसकी माटी की सुगंध हर रचना में समाहित है। ‘चंबर’, ‘मोजराई गंध’, ‘तुदन’ जैसे शब्द पाठक को कविता की कोख तक ले जाते हैं। ‘शिवजी की बरात’, ‘कल्पगा की धार’ जैसे प्रतिमान लोकसंस्कृति के स्वर को शक्ति प्रदान करते हैं। पपीहा तो कवयित्री के मन से निकलकर कई बार कविता के अनेक पन्नों की सैर कर आता है। ‘मल्हार’ कविता में पंद्रह अगस्त को तीज-त्यौहार से जोड़ना बेहद प्रभावी और सार्थक बन पड़ा है।
कवयित्री ने नारी विमर्श को एकांगी न रखते हुए एक ही कविता से क्यों न हो, पुरुष के मन की भीतरी परतों को टटोलने का प्रयास भी किया है। रेखा सिंह की कुछ हास्य कविताएँ भी इस संग्रह में सम्मिलित हैं। हास्य रस पर कवयित्री की पकड़ साबित करती है कि वे बहुमुखी प्रतिभा की धनी हैं।
शीर्षक कविता ‘मैं सिमट रही हूँ में प्रयुक्त सिमटना को मैं सकारात्मक भाव से सृजन के लिए आवश्यक प्रक्रिया के तौर पर देखता हूँ। बाहर विस्तार के लिए भीतर सिमटना होता है। यह संग्रह इस बात का दस्तावेज़ है कि कवयित्री का रचना सामर्थ्य लोहे के दरवाज़ों की नींव हिलाने में समर्थ है। कितने ही दरवाज़े लग जाएँ, वह ताज़ा हवा का झोंका तलाश लेंगी।
मैं सिमट रही हूँ,
अपने आप में,
धुआँकश कारागार में,
मेरे इर्द-गिर्द लग गए
लोहे के दरवाज़े..!
कवयित्री ने एक रचना में धरती के भीतर प्रवाहित होती फल्गु नदी का संदर्भ दिया है। रेखा सिंह की ये कविताएँ भी फल्गु की तरह अंतर्स्रावी हैं। भीतर ही भीतर प्रवाहित होने के कारण ये अब तक वांछित प्रकाश से वंचित रही हैं। ये अच्छी बात है कि अंतर्स्राव धरती से बाहर निकल आया है। अब इसे सूरज की उष्मा मिलेगी, चंद्र की ज्योत्स्ना मिलेगी। सृष्टि के सारे घात-प्रतिघात, मोह-व्यामोह, प्रशंसा-उपेक्षा सभी मिलेंगे। इनके चलते परिष्कृत होने की प्रक्रिया भी निरंतर चलती रहेगी।
फल्गु अब संभावनाओं की विशाल जलराशि समेटे गंगोत्री-सी कलकल बहने को तैयार है। अपने भूत को झटक कर उसे भविष्य की यात्रा करनी है।
अतीत के पन्ने,
उलटो न बार-बार,
चलते चलो,
कश्ती कर जाएगी
मझधार पार।
शुभाशंसा।
(श्रीमती रेखा सिंह का पिछले दिनों देहांत हो गया। वर्ष 2009 में प्रकाशित उनके कवितासंग्रह ‘मैं सिमट रही हूँ’ की यह समीक्षा दिवंगत को श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत कर रहे हैं।)
© संजय भारद्वाज
नाटककार-निर्देशक
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈