श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 14
अंजुरी (काव्य-संग्रह)– पुष्पा गुजराथी समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
पुस्तक का नाम- अंजुरी
विधा- कविता
कवयित्री – पुष्पा गुजराथी
ढलती दुपहरी की अंजुरी में ओस की बूँदें ☆ श्री संजय भारद्वाज
माना जाता है कि कविता लिखना संतान को जन्म देने जैसा है। तथापि निजी अनुभव प्रायः कहता है कि कविता संतान की नहीं अपितु माँ की भूमिका में होती है। कवि, कविता को चलना सिखा नहीं सकता बल्कि उसे स्वयं कविता की उंगली पकड़ कर चलना होता है। एक बार उंगली थाम ली तो अंजुरी खुद-ब-खुद संवेदना की तरल अभिव्यक्ति से भर जाती है। पुष्पा गुजराथी की अनुभूति ने कविता की उंगली इतने अपनत्व से थामी है कि उनकी अंजुरी की अभिव्यक्ति नवयौवना नदी-सी श्वेत लहरियों वाला वस्त्र पहने झिलमिल-झिलमिल करती दिखती है।
पुष्पा गुजराथी की कविताओं के ये पन्ने भर नहीं बल्कि उनके मन की परतों पर लिखे भावानुभवों के संग्रहित दस्तावेज़ हैं। कवयित्री ने हर कविता लिखने से पहले संवेदना के स्तर पर उसे जिया है। यही कारण है कि उनकी कविता स्पंदित करती है। यह स्पंदन इन दस्तावेज़ों की सबसे बड़ी विशेषता और सफलता है।
ओशो दर्शन कहता है कि उद्गम से आगे की यात्रा धारा है जबकि उद्गम की ओर लौटने के लिए राधा होना पड़ता है। पुष्पा गुजराथी इन कविताओं में धारा और राधा, दोनों रूपों में एक साथ प्रवाहित होती दिखती हैं। ये कविताएँ कभी अतीत की केंचुली उतारकर जीवन का वसंतोत्सव मनाना चाहती हैं तो कभी अतीत के सुर्ख़ गुलाब की पंखुड़ियाँ सहेज कर रख लेती हैं। कभी धूप और बरखा के मिलन से उपजा इंद्रधनुषी रंग वापस लौटा लाना चाहती हैं तो कभी यादों को यंत्रणाओं की शृंखलाओं-सा सिलसिला मानकर स्वयं को थरथराती दीपशिखा घोषित कर देती हैं। कवयित्री कभी सरसराती हवा के परों पर सवार हो जाती हैं तो कभी हौले से आकाश से नीचे उतर आती हैं, यह जानकर कि आकाश में घर तो बनता नहीं।
पुष्या गुजराथी की ‘अंजुरी’ को खुलने के लिए जीवन की ढलती दुपहरी तक प्रतीक्षा क्यों करनी पड़ी, यह मेरे लिए आश्चर्य का विषय है। आश्चर्य से अधिक सुखद बात यह है कि ढलती दुपहरी में खुली अंजुरी में भी ओस की बूँदे ज्यों की त्यों सुरक्षित हैं। यह बूँदें उतनी ही ताज़ा, चमकदार और स्निग्ध हैं जितनी भोर के समय होती हैं।
कच्चे गर्भ-सी रेशमी यह नन्हीं ‘अंजुरी’ पाठक के मन के दरवाज़े पर हौले से थाप देती है, मन की काँच-सी पगडंडियों पर अपने पदचिह्न छाप देती है। पाठक मंत्रमुग्ध होकर कविता के कानों में गुनगुनाने लगता है- ‘आगतम्, स्वागतम्, सुस्वागतम् ।’
हिंदी साहित्य में पुष्या गुजराथी की सृजनधर्मिता का स्वागत है। वे निरंतर चलती रहें –
जागो !
उठो चलो।
चलते ही रहो,
चलना ही तुम्हारी मंज़िल है,
अगर रुके तो ख़त्म !
हर एक के हिस्से में आता है,
दर्द अपना-अपना,
किसी के हिस्से चलने का !
किसी के हिस्से रुकने का !
कवयित्री को ढेरों शुभकामनाएँ।
© संजय भारद्वाज
नाटककार-निर्देशक
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈