श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 18 ?

? मैं कविता नहीं करता — कवि – डॉ. सत्येंद्र सिंह  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम-  मैं कविता नहीं करता

विधा- कविता

कवि- डॉ. सत्येंद्र सिंह

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? ‘कॉमन मैन’ की कविताएँ  श्री संजय भारद्वाज ?

संवेदना कविता का प्राणतत्व है। स्वाभाविक है कि कवि संवेदनशील होता है। कवि भौतिकता की अपेक्षा वैचारिकता में जीवन व्यतीत करता है। उसके चिंतन का आधार मनुष्य के चोले में बीत रहे जीवन की सार्थकता है। प्रस्तुत कवितासंग्रह  ‘मैं कविता नहीं करता’ में कवि डॉ. सत्येंद्र सिंह मनुष्य के रूप में जीवन की पड़ताल करते हुए दिखाई देते हैं।

मैं कविता नहीं करता

अपने आपको देखता हूँ…,

कब मुझे प्रभावित किया-

अहंकार ने, क्रोध ने, लालच ने

और मैं कब गिरा, कब खड़ा हुआ..।

मनुष्यता की भावनाओं में कृतज्ञता प्रमुख है। जिनसे जीवन पाया, जिनके चलते पोषण मिला,जिनसे जीवन का अर्थ मिला, जिन्होंने जीवन को सही मार्ग दिखाया, जिनके कारण जीवन जी सके, उन सब के प्रति आजीवन कृतज्ञ रहना मनुष्यता है। ‘दीप की चाहत’ कविता में यह कृतज्ञता कुछ यूँ शब्द पाती है-

मैं दीप जलाना चाहता हूँ,

उस खेत के कोने में-

जहाँ एक पूरे परिवार ने,

अपने परिश्रम से हमें

अनाज, फल, सब्जी देकर

ज़िंदा बनाए रखा।

कृतज्ञता के साथ सामासिकता और समता भी मानवता के तत्व हैं। कवि की यह आकांक्षा देखिए-

न प्रतिभा दमन हो,

न हो श्रम शोषण,

अखंड विकास ही

केवल साध्य हो।

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज, समूह से बनता है। इस सत्य से परिचित होते हुए भी स्वयं को श्रेष्ठ समझने की यह नादानी भी देखिए-

मुझसे कोई श्रेष्ठ नहीं,

मुझसे कोई ज्येष्ठ नहीं,

जो हूँ, मैं ही हूँ, बस

और कोई नहीं..!

नादानी की पराकाष्ठा है कि मनुष्य आत्मकेंद्रित संसार बनाने के मंसूबे बांधना नहीं छोड़ता। इस संदर्भ में कवि की स्पष्टोक्ति देखिए-

हाँ,‘मैं’ का संसार बन सकता है,

अहंकार का संसार बन सकता है,

पर वह होगा नितांत आभासी,

जब तक मेरे साथ तू न होगा.

तब तक संसार नहीं होगा।

कवि अदृश्य ईश्वर को दृश्यमान बनता देखता है और लिखता है-

कहते रहे लोग,

सुनते रहे हम,

रचयिता अदृश्य है

और देखते भी रहे

रचयिता को

दृश्यमान बना रहे हैं लोग।

दृश्यमान की संभावना को अपरिमित करते हुए कवि फिर प्रश्न करता है-

तुम कण-कण में हो-

आप्त वचन है,

फिर एक ही प्रस्तर में क्यों?

यह कोई साधारण प्रश्न नहीं है। कण-कण में ईश्वर को देखने के लिए दृष्टि के पार जाना होता है। पार के बाद अपार होता है और अपार में अपरंपार का दर्शन होता है।

मथुरा के श्रीकृष्ण जन्मस्थान-सेवासंघ में सेवाएँ दे चुका व्यक्तित्व स्वाभाविक है कि अपने भीतर एक आध्यात्मिक, दार्शनिक उमड़-घुमड़ अनुभव करे। इस आध्यात्मिकता और दर्शनिकता का सराहनीय पक्ष यह है कि कोई मुलम्मा चढ़ाए बिना, अलंकार और रस की चाशनी में डुबोए बिना, कवि जो देखता है, कवि जो सोचता है, वही लिखता है।

यद्यपि कवि ने संग्रह को ’मैं कविता नहीं करता’ शीर्षक दिया है तथापि अनेक स्थानों पर भीतर का कवित्व गागर में सागर-सा प्रकट हुआ है।

निरालंब होने हेतु

ढूँढ़ता हूँ अवलंब..!

मानवता के इतिहास के उपलब्ध न होने की दस्तावेज़ी बात कविता में थोड़े से शब्दों में अभिव्यक्त होती है। कुछ पंक्तियों में लघुता से प्रभुता की यात्रा पूर्ण होती है।

इतिहास के लिए

कुछ करना होता है,

…जैसे युद्ध।

बिना युद्ध वालों का ज़िक्र

कहीं मिला तो

युद्ध के कारण ही।

…इसीलिए

मनुष्यता का

कोई इतिहास नहीं है।

बुज़ुर्ग रचनाकार के पास जीवन का विपुल अनुभव है।  यह अनुभव आने वाली पीढ़ी के लिए मार्गदर्शन के रूप में कविता में स्थान पाता है। कुछ बानगियाँ देखिए-

जिस विगत की उपेक्षा की,

वर्तमान बदलने की इच्छा की,

तो आगत भयावह बन गया,

जो स्वयं नहीं किया कभी,

औरों के  लिए  उद्देश्य बन गया।

अस्तित्व जिस रूप में है,

स्वीकार करो, उपभोग करो,

अपना जीवन सार्थक करो।

अतीत में ही बने रहना,

आदमी का वृद्धत्व है,

कहते गए विद्वान जग में,

आज में जाग बुुद्धत्व है।

यह सूचनाक्रांति का युग है। हर क्षण चारों ओर से मत-मतांतर उँड़ेले जा रहे हैं। अनुभव-संपन्न और प्रबुद्ध होने पर भी दिग्भ्रमित होना स्वाभाविक है- 

मैं सोचता रहता हूँ कि

मैं, मैं हूँ या एक विचार,

जिसका स्थायित्व नहीं

अस्तित्व नहीं,

पता नहीं कब बन जाती है

विचारों की दुनिया,..मेरी दुनिया,

जहाँ विचार ही होते हैं

पर मैं कहीं नहीं होता।

पूरे संग्रह में आम नागरिक का प्रतिनिधि बनकर उभरा है कवि। आम नागरिक, जिसकी बड़ी आकांक्षाएँ नहीं हैं। आम नागरिक, जो बोलता कम है, लेकिन समझता सब है। आम नागरिक, जिसके लिए उसका राष्ट्र और राष्ट्र के प्रति प्रेम अहम बिंदु हैं (संदर्भ-भारत माता, 26 जनवरी, देशप्रेम व अन्य कविताएँ)। आम नागरिक जिसे रामराज्य चाहिए, माता जानकी का निर्वासन नहीं (संदर्भ- ओ अयोध्या वालो!)। आम नागरिक जो जानता है कि राजनीति कैसे सब्ज़बाग दिखाती है। जनता को उपदेश पिलाना और पालन के नाम पर स्वयं, शून्य रहना अब सामान्य बात हो चली है। (संदर्भ- कर्तव्य की वेदी पर)। कवि ने जो भोगा है, जो अनुभव किया है, किसी नामोल्लेख के बिना पद्य में अनेक स्थानों पर उसे संस्मरण-सा लिखा है (संदर्भ-कंधे और कुछ अन्य कविताएँ)।

प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर.के. लक्ष्मण का ‘कॉमन मैन’ भारत के आम आदमी का प्रतिरूप है। एक वाक्य में कहूँ तो- ‘कॉमन मैन’ की कविताएँ हैं, ‘मैं कविता नहीं करता।’

इस आम आदमी का कहना कि मैं कविता नहीं करता, एक रूप में सही है। उनके शब्द सहज हैं, सरल हैं। इनमें भाव हैं, ये अनुभव से उपजे हैं। ये प्राकृतिक रूप से उमगे हैं, इन्हें  कविता में लिखने का प्रयास नहीं किया गया है।

तथापि इन रचनाओं के शब्द इतने व्यापक और मुखर हैं कि व्यक्तिगत होते हुए भी इनका भावजगत, इनकी ईमानदारी, इन्हें समष्टिगत   कर देती है। तब कहना पड़ता है कि ’यह आदमी करता है कविता।’

कामना है कि कवि डॉ. सत्येंद्र सिंह के इस संग्रह को पाठकों का समुचित समर्थन मिले।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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