श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 20
मंगल पथ — कवि – स्व. प्रकाश दीक्षित समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
मंगल पथ- स्वयंप्रकाशित कविताएँ
पुस्तक का नाम- मंगल पथ
विधा- कविता
कवि- स्व. प्रकाश दीक्षित
प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे
मंगल पथ- स्वयंप्रकाशित कविताएँ ☆ श्री संजय भारद्वाज
माना जाता है कि लेखन जब तक काग़ज़ पर नहीं उतरता, गर्भस्थ शिशु की तरह लेखक की व्यक्तिगत अनुभूति होता है। काग़ज़ पर आने के बाद वह परिवार की परिधि में नाना प्रकार के लोगों से नानाविध संवाद साधता है। प्रकाशन की प्रक्रिया लेखन को प्रकाश में लाती है और रचना समष्टिगत होकर विस्तार पाती है। इसे विडंबना या दैव प्रबलता ही मानना पड़ेगा कि अपनी रचनाओं से स्वयंप्रकाशित प्रकाश दीक्षित जी की रचनाएँ उनके देवलोक गमन के उपरांत ही पुस्तक के रूप में आ पाई हैं।
उपरोक्त कथन में कहीं निराशा का भाव अंतर्निहित नहीं है। अनेक सुप्रसिद्ध रचनाकार जिन्हें सदा पढ़ा जाता रहा है, अपने जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो सके, परंतु शरीर चले जाने के बाद भी उनके सृजन ने उन्हें सृष्टि पर बनाए रखा। सृष्टि पर मिले शरीर का जाना अर्थात आत्मा का ब्रह्म में विलीन होना। हमारी सनातन संस्कृति में ब्रह्म का एक रूप शब्द भी है। अतः सारस्वत दिवंगत शब्द का चोला ओढ़कर सदैव हमारे सम्मुख रहते हैं। एतदर्थ प्रस्तुत संग्रह पढ़ते समय अनेक बार ये अनुभूति होती है कि साक्षात कवि द्वारा इसका पाठ किया जा रहा हो। काया मौन हुई तो शब्द मुखर हो उठे। यह सुखद है कि पार्थिव रूप से अनुपस्थित होते हुए भी दीक्षित जी इस संग्रह के हर पृष्ठ पर सूक्ष्म रूप से उपस्थित हैं।
इस संग्रह को ॐ छंदावली, वचनामृत एवं गुरु-गोविंद तथा वेदों पर आधारित रचनाओं के तीन भागों में बाँटा गया है। सृष्टि में सर्वत्र ॐ का नाद है। जीवन की सारी गाथा ॐ के तीन अक्षरों- ‘अ’ से आविर्भाव, ‘उ’ से ऊर्जा तथा ‘म’ से मौन में समाहित है। यही कारण है कि ‘अ’ को ब्रह्मा, ‘उ’ को विष्णु तथा ‘म’ को महेश का द्योतक माना गया है। सारांश में ॐ ईश्वर का पर्यायवाची है। इस शब्दब्रह्म को मान्यता प्रदान करते हुए छांग्योपनिषद कहता है, ‘ॐ इत्येत अक्षरः।’ अर्थात् ॐ अविनाशी, अव्यय एवं क्षरण रहित है। ॐ की अक्षरा महिमा का प्रगल्भ गान कवि ने ॐ छंदावली के अंतर्गत किया है। पूरे खण्ड में कवि का इस विषय में गहन अध्ययन स्पष्ट प्रतिपादित होता है। कुछ पंक्तियॉं दृष्टव्य हैं-
अकार से विराट विश्व अग्नि आदि अर्थ होत,
उकार में हिरण्यगर्भ वायु तेज आ रहे।।
मकार से ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञ आदि,
नाम सब ब्रह्म के हैं, ओऽम में समा रहे।
संस्कृत साहित्य, ज्ञान की अविरल धारा है। इसे सामूहिक दृष्टिहीनता ही कहेंगे कि निहित स्वार्थों और कथित आधुनिकता के हवाई गुणगान के चलते हमने संस्कृत साहित्य की घोर उपेक्षा की। उपेक्षा के इस स्वप्रेरित कुठाराघात ने आधुनिक पीढ़ी को अनेक मामलों में दिशाहीनता की स्थिति में ला छोड़ा है। ‘वचनामृत’ इस दिशाहीनता को सार्थक दिशा दिखाने का प्रयास है। इस खण्ड में संस्कृत के विभिन्न मंत्रों का पद्यानुवाद है। विशेषता यह है कि छंद रचते समय कवि ने व्याकरण और सर्जना का समन्वय भली-भाँति साधने का यत्न किया है। श्लोकों का चुनाव मनुष्य जीवन को समाजोपयोगी बनाने को दृष्टिगत रख कर किया गया है। विद्वता और नम्रता का अंतर्संबंध देखिए-
विद्या और मेघ संवर्द्धनकारी हों जो कर्म।
हे विद्वानो! करो क्रिया वह, यह जीवन का मर्म।।
जो भी चाहें शिक्षा-विद्या करो प्रीतियुत दान।
विद्या ग्रहण करो तुम उनसे जो कि अधिक विद्वान।।
तीसरा खण्ड गुरु-गोविंद व वेदों पर केंद्रित रखा गया है। वेद हमारे आद्यगुरु हैं। हमारी संस्कृति ने गुरु को ईश्वर से भी ऊँचा स्थान दिया है। “गुरु गोबिंद दोउ खड़े’ हम सबको कंठस्थ है। पूरे खण्ड में ईश्वर, गुरु व वेदों के प्रति मानवंदना अक्षर-अक्षर में प्रतिध्वनित होती है। इस मानवंदना को श्रद्धा के साथ ज्ञान की पृष्ठभूमि मिली है। यथा-
वेदों में वारिधि लहराता, जीवन की समरसता का,
वेदों का हर मंत्र, गा रहा, गीत मनुज की समता का,
बल वैभव लख विपुल किसी का द्वेष दाह से नहीं जलें।
जीवन पथ पर नित्य निरंतर वेदों के अनुसार चलें।।
उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत संग्रह कवि के देहावसान के बाद उनके बेटी-जमाता के अथक प्रयास से प्रकाशित हुआ है। बेटियों को कम आँकनेवाले समाज के एक अंश की मानसिकता में परिवर्तन लाने के लिए यह एक उदाहरण है।
आशा की जानी चाहिए कि “मंगलपथ’ की मांगलिक रचनाएँ पाठकों के हर वर्ग हेतु कल्याणकारी सिद्ध होंगी।
© संजय भारद्वाज
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈