हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – अपराजिता — कवयित्री – छाया दीपक दास सक्सेना ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 24 ?

?अपराजिता — कवयित्री – छाया दीपक दास सक्सेना  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- अपराजिता

विधा- कविता

कवयित्री- छाया दीपक दास सक्सेना

? अपराजिता होती है कविता  श्री संजय भारद्वाज ?

रोटी, कपड़ा और मकान, मनुष्य की मूलभूत भौतिक आवश्यकताएँ हैं। इसी प्रकार अभिव्यक्ति, मनुष्य की मूलभूत मानसिक आवश्यकता है। संवेदनाएँ भावात्मक विरेचन से ही प्रवहमान रहती हैं। विरेचन का अभाव, प्रवाह को सुखा डालता है। शुष्कता आदमी के भीतर पैठती है। कुंठा उपजती है, कुंठा अवसाद को जन्म देती है।

अवसाद से बचने और व्यक्तित्व के चौमुखी विकास के लिए ईश्वर ने मनुष्य को बहुविध कलाएँ प्रदान कीं। काव्य कला को इनमें विशिष्ट स्थान प्राप्त है। भाग्यवान हैं वे लोग जो लेखनी द्वारा उद्भुत शब्दों के माध्यम से व्यक्त हो  पाते हैं। श्रीमती छाया दीपक दास सक्सेना उन्हीं सौभाग्यशाली लोगों में से एक हैं।

विलियम वर्ड्सवर्थ ने कविता को परिभाषित करते हुए लिखा है, ‘पोएट्री इज स्पॉन्टेनियस ओवरफ्लो ऑफ पॉवरफुल फीलिंग्स।’ यहाँ ‘स्पॉन्टेनियस’ शब्द महत्वपूर्ण है। कविता तीव्रता से उद्भुत अवश्य होती है पर इसकी पृष्ठभूमि में वर्षों का अनुभव और विचार होते हैं। अखंड वैचारिक संचय ज्वालामुखी में बदलता है। एक दिन ज्वालामुखी फूटता है और कविता प्रवाहित होती है। कवयित्री छाया दास के प्रस्तुत कविता संग्रह ‘अपराजिता’ में यह प्रवाह स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।

कविता संवेदना की धरती पर उगती है। मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने वाली संवेदना के ह्रास  से हर संवेदनशील व्यक्ति दुखी होता है। छाया दास की रचना में संवेदना के स्वर कुछ यूँ व्यक्त होते हैं-

*हर और उमस है

क्षणों को आत्मीयता की गंध से

परे करते हुए…*

आत्मीयता की निरंतर बढ़ती उपेक्षा मनुष्य को अतीत से आसक्त करती है और वर्तमान तथा भविष्य से विरक्त।

*अवगुंठन की घास उग आई है

उन रिक्त स्थानों में

जहाँ कोई था कभी,

वर्तमान और भविष्य की

उपस्थिति को परे ठेलते हुए

वर्तमान, भूतकाल बन जाता है

और भविष्य, वर्तमान के शव को

बेताल की तरह ढोता है…!*

बेताल सामाजिक जीवन से निकलकर राजनीति और व्यवस्था में प्रवेश करता है। परस्परावलम्बिता के आधार पर खड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था के गड्डमड्ड होने से चिंतित कवयित्री का आक्रोश शब्दों में कुछ इस तरह व्यक्त होता है-

*काश हर विक्रमादित्य के कंधे पर

मनुष्यता आरूढ़ रहती…*

आधुनिक समय की सबसे बड़ी विसंगति है, मनुष्य की कथनी और करनी में अंतर। मनुष्य मुखौटे पहनकर जीता है। मुखौटों का वह इतना अभ्यस्त हो चला है कि अपना असली चेहरा भी लगभग भूल चुका। ऐसे में यदि किसी तरह उसे ‘सत्य के टुकड़े’ से असली चेहरा दिखा भी दिया जाए तो वह सत्य को ही परे ठेलने का प्रयास करता है। सुविधा के सच को अपनाकर शाश्वत सत्य को दफ़्न करना चाहता है। यथा-

*मिट्टी खोदी

एक गढ्ढे में गाड़ दिया

सच के टुकड़े को..,

जो प्रतीक्षा करे सतयुग की..!*

शाश्वत सत्य से दूर भागता मनुष्य विसंगतियों  का शिकार है।

*जीवन की विसंगतियों को

झेलते हुए मनुष्य

बन गया है ज़िंदा जीवाश्म।*

जीवाश्म की ठूँठ संवेदना का विस्तृत बयान देखिए-

*मनुष्य,

उस वृक्ष का

ठूँठ मात्र रह गया,

जिस पर चिड़ियाँ

भूल से बैठती तो हैं

पर घोंसला नहीं बनाती हैं..!*

भौतिकता के मद में बौराये आदमी के लालच का अंत नहीं है। भूख और क्षमता तो दो रोटी की है पर ठूँसना चाहता है कई टन अनाज। यह तृष्णा उसे जीवनरस से दूर करती है। कवयित्री  भरा पेट लिए सरपट भागते इस भूखे का वर्णन सरल कथ्य पर गहन तथ्य के माध्यम से करती हैं-

 *गंतव्य की तलाश तो

मानव की अनबुझी प्यास है,

जितना भी मिलता है

उतना ही और मिलने की आस है।*

समय परिवर्तनशील है, निरंतर आगे जाता है। परिवर्तन की विसंगति है कि  काल के प्रवाह में कुछ सुखद परंपराएँ भी दम तोड़ देती हैं। कवयित्री इनका नामकरण ‘कंसेप्ट’ करती हैं। खत्म होते कंसेप्ट की सूची में दादी की कहानियाँ, आंगन, रीति-रिवाज, चिट्ठियों का लिखना-बाँचना बहुत कुछ सम्मिलित है। जिस पीढ़ी ने इन परंपराओं को जिया, उसमें इनकी कसक होना स्वाभाविक है।

कवयित्री मूलत: शिक्षिका हैं। उनके रचनाकर्म में इसका प्रतिबिंब दिखाई देता है। वह चिंतित हैं, चर्चा करती हैं, राह भी सुझाती हैं। आधुनिक समाज में घटते लिंगानुपात पर चिंता उनकी कविता में उतरी है। अध्यात्म, बेटियों की महिमा, आदर्शवाद, प्रबोधन उनकी कुछ रचनाओं के केंद्र में है। पिता की स्मृति में रचित ‘तुम कहाँ गए?’, माँ की स्मृति में ‘परंतु आत्मा से सदा’ और पुत्र के विवाह के अवसर पर ‘सेहरा’ जैसी कविताएँ नितांत व्यक्तिगत होते हुए भी समष्टिगत भाव रखती हैं। पिता द्वारा दी गई गुड़िया अब तक संभाल कर रखना विश्वास दिलाता है कि संवेदना टिकी है, तभी मानवजाति बची है।

कवयित्री ने हिंदी के साथ उर्दू के शब्दों का भी बहुतायत से प्रयोग किया है। कुछ रचनाओं में उर्दू की प्रधानता भी है। कवयित्री की यह स्वाभाविकता कविता को ज़मीन से जोड़े रखती है। प्राकृतिक सत्य है कि हरा रहने के लिए ज़मीन से जुड़ा रहना अनिवार्य है।

सांप्रतिक विसंगति यह है कि हरा रहने का साधारण सूत्र भी कलयुग ने हर लिया है।

*मेरी स्मृति हर ली गई है

कलजुगी अराजकता में…*

इस अराजकता की भयावहता के आगे साक्षात श्रीकृष्ण भी विवश हैं। योगेश्वर की विवशता कवयित्री की लेखनी से प्रकट होती है-

नहीं बजा नहीं पाता हूँ

दुनिया के महाभारत में शंख…

……….

नहीं बढ़ा पाता हूँ

सैकड़ों द्रौपदियों के चीर,

कैसे पोछूँ अश्रुओं के रूप में

कलकल बहती नदियों का नीर…

……….

गरीबी रेखा के नीचे तीस प्रतिशत

सुदामा इंतज़ार करते हैं महलों का..

…………

वृद्धाश्रम में कैद हैं

कितने वासुदेव-देवकी..

……….

नहीं भगा पाता हूँ

प्रदूषण के कालिया नाग को…

……….

कहां खाने जाऊँ मधुर चिकना मक्खन,

औंधे पड़े हैं सब माटी के मटके…

कवयित्री छाया दास का यह दूसरा कविता संग्रह है। जीवन का अनुभव, देश-काल-परिस्थिति की समझ, समाज को बेहतर दे सकने की ललक, सब कुछ इन कविताओं में प्रकट हुआ है।

कविता का भावविश्व विराट होता है। कविता हर समस्या का समाधान हो, यह आवश्यक नहीं पर वह समस्या के समाधान की ओर इंगित अवश्य करती है। कविता की जिजीविषा अदम्य होती है। वह कभी हारती नहीं है।

कविता स्त्रीलिंग है। स्त्री माँ होती है। कविता माँ होती है। कवयित्री ने अपनी माँ की स्मृति में लिखा है-

*माँ बन गई चूड़ियाँ

माँ बन गई महावर,

माँ बन गई सिंदूर,

सूर्य की आँखों का नूर,

माँ बन गई राम

माँ बन गई सुंदरकांड..!*

स्मरण रहे, कविता माँ होती है। कविता अपराजिता होती है। कवयित्री छाया दास को अनेकानेक शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈