श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 26
अधरंगे ख़्वाब — कवि- राजेंद्र शर्मा
समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
पुस्तक का नाम- अधरंगे ख़्वाब
विधा- कविता
कवि- राजेंद्र शर्मा
प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर
एक सिनेमेटोग्राफर की डायरी : अधरंगे ख़्वाब ☆ श्री संजय भारद्वाज
सपना या ख़्वाब मनुष्य की जीवन यात्रा के अभिन्न अंग हैं। सुप्त इच्छाएँ, आकांक्षाएँ, अव्यक्त विचार प्राय: ख़्वाब का आकार ग्रहण करते हैं। अधिकांशत: ख़्वाब चमकीले या रंग- बिरंगे होते हैं। कवि राजेंद्र शर्मा की ख़्वाबों की दुनिया उनके कविता संग्रह ‘अधरंगे ख़्वाब’ में उतरी है। अलबत्ता ये ख़्वाब कोरी कल्पना के धरातल से नहीं अपितु जीवन के कठोर यथार्थ एवं जगत की रुक्ष सच्चाइयों से उपजे हैं। यही कारण है कि कवि इन्हें अधरंगे ख़्वाब कहता है।
‘अधरंगे ख़्वाब’ की कविताओं में स्मृतियों की खट्टी-मीठी टीस है। राजनीति के विषैलेपन पर प्रहार है। लॉकडाउन के समय की भिन्न-भिन्न घटनाओं के माध्यम से तत्कालीन मनोदशा का वर्णन है। नगरवधुओं की पीड़ा के चित्र हैं। आचार-विचार में निरंतर उतर रही कृत्रिमता पर चिंता है। राष्ट्रीयता पर चिंतन है। पर्यावरण के नाश की पीड़ा है। मनुष्य जीवन के विविध रंग हैं। भीतर ही भीतर बहती परिवर्तन की, बेहतरी की इच्छा है। सारी आशंकाओं के बीच संभावनाओं की पड़ताल है।
स्मृतियों का रंग कभी धुंधला नहीं पड़ता अपितु विस्मृति का हर प्रयास, स्मृति को गहरा कर देता है। निरंतर गहराती स्मृतियों की ये बानगियाँ देखिए-
ये कैसा अमरत्व पा लिया है तूने
मेरे मस्तिष्क की गहराइयों में,
मान्यता प्राप्त किसी दैवीय शक्ति की तरह, अपरिवर्तित सौंदर्य, लावण्य, युवा अवस्था।
प्रेम की अनन्य मृग मरीचिका कुछ यूँ शब्दों में अभिव्यक्त होती है-
जिसे मैं ढूँढ़ रहा हूँ वो मुझमें ही बसती है,
बिन उसके कटता नहीं इक पल मेरा,
ऐसी उसकी हस्ती है।
राज करने की नीति अर्थात राजनीति। इस शब्द के आविर्भाव के समय संभवत: इससे राज्य- शासन के आदर्श नियम, उपनियम वांछित रहे हों पर कालांतर में येन केन प्रकारेण ‘फूट डालो और राज करो’ के इर्द-गिर्द ही राजनीति सिमट कर रह गई । कवि को यह विषबेल बुरी तरह से सालती है।
ये जानते हैं
ज्ञानी से मूर्ख को गरियाना,
ये जानते हैं
मूर्ख से ज्ञानी को लठियाना,
ये जानते हैं
मेरी कमज़ोरी,
ये जानते हैं
तेरी कमज़ोरी।
आम जनता में व्याप्त बिखराव की कमज़ोरी के दम पर सत्ता पिपासु अपनी-अपनी रोटी सेंकते हैं। उनकी आपसी सांठगांठ की पोल खोलती यह अभिव्यक्ति देखिए-
अनीति से नीति के इस हवन में
षड्यंत्र के नाम पर
आहुतियाँ यूँ ही पड़ती रहेंगी,
जय तुम्हारी भी होगी,
जय हमारी भी होगी,
कभी रोटियाँ तुम बेलो,
कभी रोटियाँ हम सेंकें,
कभी हम रोटियाँ बेलें,
कभी रोटियाँ तुम सेंको ,
यही तो समझदारी है,
हम हैं एक,
अलग-अलग कहाँ हैं..!
लॉकडाउन वर्तमान पीढ़ी द्वारा देखा गया अपने समय का सबसे भयावह सच है। अपने घरों में क़ैद हम क्या सोच रहे थे, इस सोच को विभिन्न घटनाओं पर टिप्पणियों के रूप में उपजी विविध कविताओं में कवि ने उतारा है।
समाज लोगों का समूह है। आधुनिकता ने हमें अकेला कर दिया है। इस लंबी नींद को तोड़ने का आह्वान कवि करता है-
अब मेरी आँखें खुल चुकी थीं,
मैंने उठकर अपने कमरे के
सारे रोशनदान,
सारी खिड़कियाँ,
दरवाज़े खोल दिए और
देखते ही देखते मेरा कमरा
एक सुनहरी रोशनी से भर गया।
भौतिक विकास के नाम पर पर्यावरण और सहजता का विनाश हो चुका। हमने इर्द-गिर्द और मन के भीतर काँक्रीट के जंगल उगा लिए हैं। प्राकृतिक जंगल हरियाली फैलाता है, काँक्रीट का जंगल अशेष को अवशेष कर देता है।
जहाँ स्वच्छ, स्वस्थ, प्राणवायु के नाम पर
बचे रह गए हैं कुछ एक पर्यटन स्थल,
निर्मल जल के नाम पर कुछ एक नदी तट,
और वे भी कब तक रहेंगे शेष?
न जाने किस दिन चढ़ जाएँगे
विकास के नाम पर विनाश की भेंट..!
छमाछम बारिश में भीगना, अब असभ्यता हो चला है। खुद को ख़ुद में डूबते देखना तो कल्पनातीत ही है-
आज मैंने
फिर एक बार
काग़ज़ की नाव बनाई,
फिर एक बार
उसे घर के पास
नाली के तेज़ बहते पानी में उतारा,
फिर एक बार उसमें बैठ
अपने को
दूर तलक जाते देखा,
फिर एक बार
आज बरसों बरस बाद,
ख़ुद को ख़ुद में डूबते देखा।
कविता सपाटबयानी नहीं होती। कविता में मनुष्य का मार्गदर्शन करने का तत्व अंतर्भूत होता है। सूक्ति नहीं तो केवल उक्ति का क्या लाभ?
निर्णय वही सही होता है, जो
सही समय पर लिया गया हो
वक्त के बाद लिया गया सही निर्णय भी,
हानि के उपरांत
उसका प्रायश्चित तो हो सकता है,
उस क्षति की पूर्ति नहीं।
‘बंद कमरे-बौद्धिक चर्चाएँ’ कविता में रोज़ाना घटती ऐसी घटनाओं का उल्लेख है जो हमें विचलित कर देती हैं। तथापि हम समस्या पर मात्र दुख जताते हैं। उसके हल के लिए कोई सूत्र हमारे पास नहीं होता। कहा गया है, ‘य: क्रियावान स पंडित:।’ जिह्वालाप से नहीं, प्रत्यक्ष कार्यकलाप से हल होती हैं समस्याएँ।
परिवर्तन सृष्टि का एकमात्र नियम है जो कभी परिवर्तित नहीं होता। हर समय परिवर्तन घट रहा है। अत: हर समय परिवर्तन के साथ कदमताल आवश्यक है-
कभी मैं बहुत छोटा था,
धीरे-धीरे बड़ा हुआ
और अब
तेज़ी से बूढ़ा हो रहा हूँ
किसी भी देश की सेना की शक्ति अस्त्र-शस्त्र होती है। भारत के संदर्भ में मनोबल और बलिदान का भाव हमारी सेना को विशेष शक्तिशाली बनाता है। ‘लीला- रामकृष्ण’ एक सैनिक और उसकी मंगेतर की प्रेमकथा है। यह काव्यात्मक कथा दृश्य बुनती है, दृश्य से तारतम्य स्थापित होता है और पाठक कथा से समरस हो जाता है।
प्रकृति बहुरंगी है। प्रकृति में सब कुछ एक-सा हो तो एकरसता हो जाएगी। मनुष्य को सारे रंग चाहिएँ, मनुष्य को रंग-बिरंगी सर्कस चाहिए।
ये दुनिया एक सर्कस है
जिसमें कई रूप-रंग,
क़द-काठी वाले स्त्री-पुरुष,
जिसमें कई भिन्न जातियों-प्रजातियों,
नस्लों वाले जीव-जंतु,
जिसमें कई तरह के श्रृंगार, साज़-ओ-सामान, परिधानों से लदे-फदे कलाकार,
अलग-अलग भाषा शैली,
गीत-संगीत के समायोजन से,
हास्य, व्यंग्य, करुणा,
नव रसों का रसपान कराते हैं,
टुकड़े-टुकड़े दृश्यों से
एक सम्पूर्ण परिदृश्य को
परिलक्षित करते हैं,
यही बहुरूपता ख़ूबसूरती है इसकी,
जो जोड़ती है आपको, मुझको इसके साथ।
मनुष्य में अपार संभावनाएँ हैं। ईश्वरीय तत्व तक पहुँचने यात्रा का अवसर है मनुष्य का जीवन। इस जीवन में हम सबको प्राय: अच्छे लोग मिलते हैं। ये लोग सद्भावना से अपना काम करते हैं, दूसरों के काम आते हैं। ये लोग किसी तरह का कोई एहसान नहीं जताते और काम होने के बाद दिखाई भी नहीं देते। जगत ऐसे ही लोगों से चल रहा है। वे ही जगत के आधार हैं, नींव हैं और नींव दिखाई थोड़े ही देती है।
वे लोग जो एक बार मिलकर
दोबारा फिर कभी नहीं मिलते हैं,
वे लोग जो पहली मुलाक़ात में
सीधे-मन में समा जाते हैं,
वे लोग कहाँ चले जाते हैं?
नव वर्ष पर नए संकल्प लेना और गत वर्ष लिए संकल्पों को भूल जाना आदमी की स्वभावगत निर्बलता है। यूँ देखे तो हर क्षण नया है, हर पल वर्ष नया है।
न वो कहीं गया था, न ही वो कहीं से आ रहा है, उसे तो हमने अपनी सुविधा के लिए बांट रखा है।
अति सदैव विनाशकारी होती है। स्वतंत्रता की अति है उच्छृंलता। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अनेक बार देश को ही कटघरे में खड़ा करने, येन केन प्रकारेण चर्चा में रहने की दुष्प्रवृत्ति के अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं। इन दुष्प्रवृत्तियों को कवि खरी- खरी सुनाता है-
ये देश है तो
ये धर्म, ये मज़हब, ये सम्प्रदाय,
ये जाति, ये प्रजाति,
ये गण, ये गोत्र,
ये क्षेत्र, ये प्रांत,
ये भाषा, ये बोली,
ये रुतबा, ये हैसियत,
ये पक्ष, ये विपक्ष,
ये स्वतंत्रता, ये आज़ादी,
सब हैं..,
अन्यथा
कुछ भी नहीं..!
जीवन संभावनाओं से लबालब भरा है। अनेक बार परिस्थितियों से घबराकर लोग संभावना को आशंका मान बैठते हैं और जीवन अवसर से अवसाद की दिशा में मुड़ने लगता है।
कभी-कभी जीवन में ऐसा समय आता है,
जब व्यक्ति स्वयं ही
ज्ञान के, सूचना के
सभी मार्गों को अवरुद्ध कर लेता है,
इस वक्त वह एक भ्रम की स्थिति में जीता है,
वह अपने सत्य को ही
अंतिम सत्य मान बैठता है।
मनुष्य संवेदनशील प्राणी है। राजेंद्र शर्मा की रचनाओं में संवेदनशीलता उभर कर सामने आती है। ‘पापा याद है ना’ ऐसे ही एक मार्मिक रचना है। ‘नगरवधु’ विषय पर तीन कविताएँ हैं। पुरुष का स्त्री बनाकर लिखना लिंग पूर्वाग्रह या जेंडर बायस से मुक्ति की यात्रा है। यह अच्छी बात है।
इस संग्रह की अधिकांश रचनाएँ कथात्मक हैं। बल्कि यूँ कहें कि कथाएँ, घटनाएँ, अपने विवरण के साथ कविता में उतरी हैं तो अधिक तर्कसंगत होगा। शीर्षक कविता ‘अधरंगे ख़्वाब’ एक सार्वजनिक व्यक्तित्व के जीवन के उतार-चढ़ाव की लंबी कविता है। वर्तमान में न्यायालय के विचाराधीन इस प्रकरण में महत्वाकांक्षा के चलते प्रकाश से अंधकार की यात्रा पर कवि कुछ इस तरह टिप्पणी करता है-
महत्वाकांक्षी होना तो सुन्दर बात है
पर अति महत्वकांक्षी होना
बिलकुल सुन्दर बात नहीं ।
राजेंद्र शर्मा की रचनाओं की भाषा मिश्रित है शिल्प की तुलना में भाव मुखर है। कोई आग्रह नहीं है। जो देखा, समझा, जाना, काग़ज़ पर उतरा। पाठक उसे अपनी तरह से ग्रहण कर सकता है। यह इन रचनाओं की शक्ति भी है।
कवि सिनेमेटोग्राफर हैं। इन कविताओं में सिनेमेटोग्राफर की मन की आँख के लेंस से दिखते दृश्य उतरे हैं। जो कुछ सिनेमेटोग्राफर देखता गया, संवेदना की स्याही में डुबोकर उसे कथात्मक, घटनात्मक या विवरणात्मक रूप से लिखता गया। अतः ‘अधरंगे ख़्वाब’ में संग्रहित कविताओं को मैं ‘एक सिनेमेटोग्राफर की डायरी’ कहना चाहूँगा।
राजेंद्र शर्मा इसी तरह डायरी लिखते रहें। शुभं अस्तु।
© संजय भारद्वाज
नाटककार-निर्देशक
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’≈