श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
रात के 2:37 का समय है। अलीगढ़ महोत्सव में कविता पाठ के सिलसिले में हाथरस सिटी स्टेशन पर कवि मित्र डॉ. राज बुंदेली के साथ उतरा हूँ। प्लेटफॉर्म लगभग सुनसान। टिकटघर के पास लगी बेंचों पर लगभग शनैः-शनैः 8-10 लोग एकत्रित हो गए हैं। आगे की कोई ट्रेन पकड़नी है उन्हें।
बाहर के वीराने में एक चक्कर लगाने का मन है ताकि कहीं चाय की कोई गुमटी दिख जाए। शीतलहर में चाय संजीवनी का काम करती है। मित्र बताते हैं कि बाहर खड़े साइकिल रिक्शावाले से पता चला है कि बाहर इस समय कोई दुकान या गुमटी खुली नहीं मिलेगी। तब भी नवोन्मेषी वृत्ति बाहर जाकर गुमटी तलाशने का मन बनाती है।
उठे कदम एकाएक ठिठक जाते हैं। सामने से एक वानर-राज आते दिख रहे हैं। टिकटघर की रेलिंग के पास दो रोटियाँ पड़ी हैं। उनकी निगाहें उस पर हैं। अपने फूडबैग की रक्षा अब सर्वोच्च प्राथमिकता है और गुमटी खोजी अभियान स्थगित करना पड़ा है।
देखता हूँ कि वानर के हाथ में रोटी है। पता नहीं ठंड का असर है या उनकी आयु हो चली है कि एक रोटी धीरे-धीरे खाने में उनको लगभग दस-बारह मिनट का समय लगा। थोड़े समय में सीटियाँ-सी बजने लगी और धमाचौकड़ी मचाते आठ-दस वानरों की टोली प्लेटफॉर्म के भीतर-बाहर खेलने लगी। स्टेशन स्वच्छ है तब भी एक बेंच के पास पड़े मूंगफली के छिलकों में से कुछ दाने वे तलाश ही लेते हैं। अधिकांश शिशु वानर हैं। एक मादा है जिसके पेट से टुकुर-टुकुर ताकता नन्हा वानर छिपा है।
विचार उठा कि हमने प्राणियों के स्वाभाविक वन-प्रांतर उनसे छीन लिए हैं। फलतः वे इस तरह का जीवन जीने को विवश हैं। प्रकृति समष्टिगत है। उसे व्यक्तिगत करने की कोशिश में मनुष्य जड़ों को ही काट रहा है। परिणाम सामने है, प्राकृतिक और भावात्मक दोनों स्तर पर हम सूखे का सामना कर रहे हैं।
अलबत्ता इस सूखे में हरियाली दिखी, हाथरस सिटी के इस स्टेशन की दीवारों पर उकेरी गई महाराष्ट्र की वारली या इसके सदृश्य पेंटिंग्स के रूप में। राजनीति और स्वार्थ कितना ही तोड़ें, साहित्य और कला निरंतर जोड़ते रहते हैं। यही विश्वास मुझे और मेरे जैसे मसिजीवियों को सृजन से जोड़े रखता है।
© संजय भारद्वाज, पुणे
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603